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प्रेम एवं करुणा सम्यक्त्व के महत्त्वपूर्ण बुनीयादी गुण हैं । अंश रूप में तो मैत्री आदि दृष्टियों में भी ये गुण दृष्टिगोचर होते
* यह मानव-जन्म ऐसे गुणों को उपार्जन करने के लिए ही हैं । आप मुंबई धन-उपार्जन के लिए ही जाते हैं न ? उस प्रकार यहां इस जन्म में भी गुण उपार्जन करने हैं । यहां आने के बाद दोषों की वृद्धि की तो ? मुंबई जैसे महानगर में भी आप धन उपार्जन तो न करो परन्तु पैसे-टकों में बरबाद ही होते रहो तो आपके दुर्भाग्य के लिए क्या कहा जाये ?
गुण बढने के साथ पवित्रता बढ़ती है । पवित्रता बढ़ने के साथ स्थिरता बढ़ती है ।
सिद्धों का प्रेम पूर्ण बन गया, इस कारण उनकी स्थिरता अत्यन्त निश्चल हो गई ।
पांच समिति, तीन गुप्ति, पांच व्रत, चार भावना आदि भगवान की समस्त आज्ञाओं में समस्त जीवों के प्रति भगवान का उभरता प्रेम प्रतीत होगा ।
___ "धर्मंकल्पद्रुमस्यैताः मूलं मैत्र्यादि भावनाः । यै न ज्ञाता न चाऽभ्यस्ताः स तेषामतिदुर्लभः ॥"
- योगसार
भगवान में ये चारों भावनाएं चिन्तनात्मक नहीं रही, परन्तु स्वाभाविक बन गई हैं । चिन्तन करनेवाला मन तो विलीन हो गया ।
अब मन कहां है ? प्रभु तो मन के उस पार पहुंच गये हैं ।
यदि प्रभु में हम प्रेम एवं स्थिरता देख सके तो उन गुणों का अवतरण हममें हो सके ।
* भगवान की प्रतिमा तो वही होती है, लेकिन ज्यों ज्यों हमारी शुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों त्यों हमारे भाव भी बढ़ते जाते हैं।
* क्या भगवान बोलते हैं ? हां, यशोविजयजी कहते हैं - "भ्रम भांग्यो तव प्रभुशं प्रेमे, वात करूं मन खोलीजी;
सरलतणे हियडे जे आवे, तेह जणावे बोलीजी..." कहे कलापूर्णसूरि - २wwwwwwwwwwwwwwwwwww ७)