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जिस प्रभु के लिए हमने वेष लिया, दीक्षा अंगीकार की, वह प्रभु ही यदि हमें नहीं मिले तो वेष लेने का अर्थ क्या ? भक्त मीरा आदि को भगवान मिल सकते हैं तो हमें क्यों नहीं मिल सकते ?
___'मन रे मनाव्या विण नवि मूकुं' क्या इस प्रकार के उद्गार यों ही निकले होंगे ?
सब कुछ करते हैं, परन्तु जीवन में कमी क्या है ? केवल प्रेम की । परस्पर प्रेम की कमी है न ? आप परस्पर प्रेम नहीं रख सकते, तो प्रभु पर प्रेम कैसे रख सकोगे ?
* भगवान वीतराग हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान में प्रेम नहीं है । भगवान राग-रहित हैं, प्रेम-रहित नहीं हैं ।
द्वेष जितना राग बुरा नहीं है। राग का केवल रूपान्तर करने की आवश्यकता है।
यह तो आप जानते ही हैं न कि गुणानुराग प्रकट होने के बाद ही अन्य गुण प्रकट हो सकते हैं ?
दर्शन मोहनीय का क्षय होने से भगवान में अनन्त प्रेम विद्यमान है । हमारे भीतर जितने अंशों में दर्शन मोहनीय का क्षय होता है, उतने अंशों में जीवों के प्रति प्रेम प्रकट होता है। चारित्र मोहनीय की बात बाद में । प्रथम दर्शन मोहनीय पर प्रहार होना चाहिये।
प्रभु के दर्शन करने का तात्पर्य है उनमें अनन्त प्रेम के दर्शन करने, उनकी अनन्त स्थिरता के दर्शन करने ।
* भगवान अपनी सौम्य मुद्रा एवं वाणी से आनन्द की प्रभावना कर रहे हैं ।
आगम मतलब भगवान की 'टेप' की हुई वाणी । मूर्त्ति मतलब भगवान की सौम्य मुद्रा । उसके माध्यम से आज भी हम आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।
प्रभु के दर्शन करते समय उनकी अनन्त पूज्यता, अनन्त करुणा, अनन्त प्रेम आदि के क्या कभी दर्शन हुए हैं ?
ये गुण आते ही हमारे भीतर पूज्यता के भाव उत्पन्न होंगे ही।
पूज्यता के लिए पात्रता बाहर से नहीं आती, भीतर से प्रकट होती है। (८0000 66666666666666666666666 कहे कलापूर्णसूरि - २)