________________
करोड़ों रत्नों को कांच के भाव में बेचनेवाले पुत्रों के समान ही हम हैं । भक्ति की जा सकें वैसे इस जीवन में केवल शक्ति एकत्रित करते रहते हैं । थोड़ी सामग्री एकत्रित करते रहते हैं । प्रभु बना जा सके ऐसे जीवन में केवल दो-पांच लाख रुपयों में सन्तुष्ट हो जाते हैं ।
* सर्व प्रथम बाल्यकाल में यहां यात्रा की थी तब कुछ भी मैं जानता नहीं था । दादा को देख कर 'वाह - वाह' बोल उठा था, परन्तु बीज रूप में विद्यमान वे ही संस्कार आज काम आते हैं ।
दादा के समक्ष आकर कोई भक्त 'वाह-वाह दादा' बोले (अधिक तो समय कहां होता है ? दर्शनार्थी अधिक होते हैं ।) इतने से ही उसका काम हो गया समझो, क्योंकि 'वाह' बोलते ही उसने दादा के समस्त गुणों का अनुमोदन कर लिया । सम्यक्त्व प्राप्ति का चिन्ह क्या ?
*
प्रभु की प्रतिमा दिखते ही प्रभु हमारे समक्ष हो वैसा दिखता है । आगे बढ़कर आत्मा में भी प्रभु दिखाई देता है । इस तरह सम्यक्त्व से दूर-दूर स्थित प्रभु समीप - समीप लगते हैं । दूर स्थित भगवान को समीप ले आये उसका नाम सम्यग्दर्शन ।
भगवान चाहे सात राजलोक दूर हो, परन्तु भक्त के मन से यहीं हैं, सामने ही है, हृदय में ही है, सम्यक्त्वी बनना अर्थात्
भक्त बनना ।
यहां तो दादा केवल पर्वत पर है, परन्तु मोक्ष में गये हुए भगवान तो सात राजलोक दूर हैं ।
इन्टरनेट, फैक्स, ई-मेइल, फोन इत्यादि के द्वारा आप दूर अमेरिका में स्थित व्यक्ति के साथ भी सम्पर्क कर सकते हैं, उस प्रकार भक्ति के द्वारा आप दूर स्थित भगवान के साथ भी सम्पर्क कर सकते हैं ।
“सात राज अलगा जई बेठा, पण भगते अम मन मांहि पेठा " मन में भगवान कैसे आये ?
भक्ति के माध्यम से ! ध्यान के माध्यम
२४६ Wwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि