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________________ * कर्म की दृष्टि से देखें तो जगत् विषम है । आत्म-दृष्टि से देखें तो जगत् सच्चिदानंदमय है । सिद्धगिरि पर आकर आत्मदृष्टि बढ़ानी है। कर्म-दृष्टि से विषमता अनेकबार देखी । अब सच्चिदानंदमय जगत् देखना है । भगवान हमें सच्चिदानंदमय रूप में देखते हैं, परन्तु हम ही हमें सच्चिदानंदमय रूप में नहीं देखते । हमारे खजाने का हमें ही पता नहीं है । * गौतम स्वामी को कदापि विचार नहीं आया कि अन्य सभी कैवल्य प्राप्त कर चुके और मैं रह गया, परन्तु वे सदा सोचते कि भगवान की सम्पत्ति मेरी ही सम्पत्ति है न ? मुझे क्या चिन्ता है ? समर्पित पुत्र को विश्वास होता है कि पिता का धन मेरा ही धन है । समर्पित शिष्य को भी विश्वास होता है कि गुरु की सम्पत्ति मेरी ही सम्पत्ति है । आपके मन में ऐसा विश्वास है ? भगवान के सच्चे भक्त को ऐसा विश्वास होता है । श्रावक प्रभु के समक्ष नैवेद्य आदि ले जाते हैं । आप प्रभु के पास क्या ले जाते हैं ? भगवान के पास भक्ति की भेंट लेकर जाना है । सामान्य धनी व्यक्ति के घर आप जायें तो भी वह खाली हाथ आपको नहीं लौटाएगा तो भगवान आपको खाली हाथ कैसे लौटायेंगे । आप भक्ति की भेंट धरेंगे तो प्रभु की ओर से समकित की भेंट मिलेगी ही । ज्यों ज्यों भक्ति बढ़ेगी, त्यों त्यों आत्मा की शक्ति बढ़ती जाती है, आत्मा के साथ एकता बढ़ती जाती है । भक्ति बढने के साथ आत्मानुभूति की शक्ति बढ़ती है । आत्मानुभूति हो गई हो तो अधिक निर्मल बनती है, आप इतना ध्यान रखना । करोड़ों रत्नों के स्वामी सेठ बाहरगांव गये थे । उस समय उतावले पुत्रों ने रत्न बेच दिये । पानी के भाव में बेच दिये । पिता अप्रसन्न एवं उदास हो गये । कहे कलापूर्णसूरि २ 00000 १००० २४५
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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