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________________ सम्यक्त्व सामायिक प्राप्त कर चुका हो, वह भगवान के संघ का सदस्य कहलाता है । आपके पास क्या यह सर्टिफिकेट है ? जब तक भाव चारित्र न आये, तब तक नहीं चलता । हमारी पात्रता पर महापुरुषों ने हमें यह चारित्र प्रदान किया है । जीवन के अन्त तक इस गुणस्थानक का स्पर्श करे वैसा भाव उत्पन्न न हो तो क्या काम का ? * प्रभु ने ऐसी साधना की, कि वह धर्म उन में आत्मसात् हो गया । धर्म पर भगवान का स्वामित्व हो गया । जिस प्रकार चक्रवर्ती के अधीन नगर, गांव सब हो जाते हैं, उस प्रकार प्रभु के अधीन तीनों लोक तथा समस्त गुण हो गये । 'ललितविस्तरा' ग्रन्थ पढ़ने पर ये पदार्थ विशेषतया समझ में आयेंगे । 'सुलसा आदि नौ व्यक्तियों को भगवान ने तीर्थंकर पद दिया' - इस प्रकार पं. वीरविजयजी म.सा. ने कहा वह क्या उचित है ? "सुलसादिक नव जण ने जिन-पद दीधुं रे..." इन नौ व्यक्तियों को प्रभु ने तीर्थंकर-पद दिया था कि उन्हें अपनी साधना से मिला था ? दूसरों को क्यों नहीं मिला ? उन नौ को ही क्यों मिला ? क्योंकि उन नौ का उत्कृष्ट योग था । तदुपरान्त उन नौ को भी पहले तीर्थंकर पद क्यों नहीं मिला ? और प्रभु की उपस्थिति में ही क्यों निकाचित हुआ ? आप यदि यह सोंचेंगे तो प्रभु की मुख्यता समझ में आयेगी । इन्द्रभूति आदि में गणधर पद की योग्यता होती तो जिस समय यज्ञ किया तब उन्हों ने गणधर-पद क्यों नहीं पाया ? आपको उपादान मुख्य प्रतीत होता होगा । मुझे प्रभु मुख्य प्रतीत होते हैं । भूख हो फिर भी भोजन की सामग्री न हो तो क्या करोगे? क्या भूख मिटेगी ? आप भोजन की सामग्री का उपकार मानोगे या नहीं ? उस प्रकार चाहे जितना जीव योग्य हो, परन्तु सामने प्राप्त कराने वाला नहीं हो तो क्या करोगे ? कोडिये में तेल, दीवट सब कुछ है, परन्तु प्रकाश कब होगा ? इतनी योग्यता होते हुए भी जलती ज्योति से उसे नहीं मिलायेंगे कहे कलापूर्णसूरि - २ B ODOS 56 २४१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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