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________________ भीमासर - कच्छ, वि.सं. २०४६ ४-५-२०००, गुरुवार वै. कृष्णा - ३० : पालीताणा * अनन्त गुणों के भंडार महावीर भगवान ने विश्व के कल्याणार्थ तीर्थ की स्थापना की । जिस तीर्थ के द्वारा स्वयं तीर्थंकर बने, उस तीर्थ का प्रभु उपकार मानते हैं । अपनी साधना के फल स्वरूप वे तीर्थंकर बने । उन्हों ने तीर्थ की स्थापना की । मेरे समस्त आत्म-बंधुओं का मुझ पर उपकार है । उसका बदला चुकाने के लिए इस तीर्थ की स्थापना आवश्यक है, इस प्रकार प्रभु तीर्थंकर नामकर्म खपाते हैं । प्रभु संयम धर्म को ऐसा आत्मसात् करते हैं कि जो उन्हें दूसरे जन्म में ऐसी शक्ति प्रदान करता है कि उनके उपदेश से अन्य भी तीर्थंकर, गणधर या केवलज्ञानी बन सकें । यह सर्वोत्कृष्ट विनियोग कहलाता है । ऐसी शक्ति तीर्थंकरो को ही मिलती है, दूसरों को नहीं । दूसरे नम्बर में गणधरों को मिलती है । ऐसी शक्ति क्यों मिली ? क्योंकि पूर्व भवो में ऐसे ऐसे मनोरथों से प्रयत्न किये । मोक्ष-मार्ग का यह संघ है । इस संघ के हम सदस्य हैं या नहीं ? जो आत्मा सम्यग् दर्शन प्राप्त कर चुके हों, श्रुत सामायिक, Nawwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २ २४०
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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