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________________ "स्वामी दरिसण समो निमित्त लई निर्मलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे ।" प्रभु ! तेरा शासन प्राप्त करने के बाद भी, तेरे समान मेरा आनन्द है यह जानने के बाद भी उसे प्राप्त करने का मन क्यों नहीं होता? क्या कमी है मुझ में ? निर्मल एवं पुष्ट निमित्त आपका मिला है। आत्मा का एकान्त से हितकारी, इस लोक और परलोक में भी हितकारी ऐसा शासन मिला है, फिर भी क्यों उसमें पुरुषार्थ नहीं होता ? क्यों देव-गुरु-धर्म की आराधना नहीं होती ? क्या मेरा जीव अभव्य का होगा या दुर्भव्य का होगा ? __अभव्य जीव तो मोक्ष जाने का इनकार ही करता है । दुर्भव्य कहता है कि जाना तो है परन्तु अभी नहीं । * इस काल में मोक्ष नहीं है, चारित्र की विशुद्धि नहीं है, ऐसा संघयण आज नहीं है । यह सब स्वीकार है, परन्तु कम से कम प्रभु के दर्शन तो कर सकते हैं न ? स्पष्टतर-स्पष्टतम दर्शन करने की तमन्ना जगी है ? जो परमात्मा मोक्ष में है, महाविदेह में हैं, केवली भगवान के में हैं, वे ही परमात्मा मेरे देह में, सकल आत्म-प्रदेश में विद्यमान हैं । ऐसा जानने के बाद भी आप उनके दर्शन की तमन्ना नहीं करो ? * आपकी धन-राशि बैंक में जमा हो, और आप यहां 'चैक' लिखकर बैंक में भेजो तो बैंक के केशियर को धन-राशि देनी ही पड़ती है । उस प्रकार आप की आत्मसम्पत्ति आपको मिलेगी ही । आप उसके हकदार हैं । * दर्पण के समक्ष जाकर खड़े रहो, तो आपको चेहरा तत्क्षण दिखाई देता है, उस प्रकार निर्मल चित्त में तत्क्षण प्रभु के दर्शन होते हैं । दर्पण में तो फिर भी प्रतिबिम्ब है । यहां साक्षात् प्रभु के दर्शन होते हैं । दर्पण निर्मल नहीं हो तो प्रतिबिम्ब निर्मल नहीं पड़ता, उस प्रकार चित्त निर्मल न हो तो प्रभु चित्त में नहीं आते । अब निर्मल बनने का पुरुषार्थ ही करना है । यह कब होगा ? मलिनता को दूर कौन करता है ? निर्मलता कौन लाता है ? कहे कलापूर्णसूरि - २66omoooooooooooom00 २३७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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