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________________ AADISNORNASI अपने दो पट्ट शिष्यों के साथ चैत्यवंदन ३-५-२०००, बुधवार वै. कृष्णा-१४ : पालीताणा * आत्मा के गुण कर्मों से दबे हुए हैं वे वैसे ही प्रकट नहीं होते । गेहूं पौधे पर पकते हैं उस प्रकार रोटी पौधे पर नहीं पकती । उसके लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है । उस प्रकार गुणों को प्रकट करने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है । गुण कहीं भी गये नहीं हैं । हमारे भीतर ही विद्यमान ' हैं । बैंक-बेलेन्स मौजूद हैं । हमें उसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । जिन्हें आवश्यकता प्रतीत हुई उन महात्माओं ने उनका उपयोग किया । हमारे पास इतना आनन्द का और गुणों का खजाना है, फिर भी हम पुरुषार्थ क्यों नहीं करते ? क्या अरिहंत का यह वचन असत्य है, मिथ्या है कि आत्मा में ही पूर्ण गुणों का खजाना हैं । भगवान स्वयं के समान ही स्वरूप सभी जीवों का देख रहें हैं । अपने पास ही खजाना है फिर भी प्रयत्न क्यों नहीं होता ? सुना है कि धन यहां से प्राप्त हो सकता है, फिर आप रूकेंगे क्या ? उस प्रकार यह बात सुनकर भी यह आनन्द का अनुभव करने का विचार क्यों नहीं आता ? (२३६ 0000000000666666600 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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