SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समता से चित्त निर्मल बनता है । चारित्रवान को ही यह वस्तु प्राप्त होती है । चारित्र में निर्मलता कषायों पर विजय से प्राप्त होती है । हमारी कमी कहां है, वह देख लो । निर्मलता को रोकने वाले, मलिनता लाने वाले ये कषाय हैं, जिन्हें हम छोड़ते नहीं हैं । गुरु महाराज को, गुरु भाइयों को, गुरु बहनों को छोड़ देते हैं, परन्तु इन कषायों को हम छोडते नहीं हैं । उपकारी कौन लगते हैं ? ये कषाय या गुरु महाराज ? जमाल ने अपने ही गुरु भगवान महावीर को अहं के कारण छोड दिये । गौतम स्वामी एवं उनके पचास हजार शिष्यों को, अपने ७०० शिष्यों को केवलज्ञान हो गया, परन्तु जमालि जो निकट का रिश्तेदार था, मान के कारण रह गया । मान में लोभ भी है न ? लोभ केवल धन का नहीं होता, बड़प्पन आदि का भी लोभ होता है । हमने ऐसी भूलें कितनी की हैं ? कितनी बार पीछे रहे ? कषाय ऐसे बुरे हैं जो भले भलों को पछाड़ देते हैं । चढ़े हुए को भी पछाड़ देते हैं । कषाय घटे तो समता प्रकट हो, आत्मशुद्धि हो । आत्मा की शुद्धि करने वाली समता जितनी अधिक होगी, उतने प्रभु के दर्शन शीघ्र होंगे । अनन्तानुबंधी कषायों का निग्रह करके मन पर विजयी बन कर प्राप्त किये गये सम्यग् दर्शन की जितनी शुद्धि होती है उतने प्रमाण में प्रभु दर्शन होते हैं । मां काम करती हो, परन्तु झूला (लोरी) गाती है, झूला हिलाती है, और बालक को लगता है क मां मेरे पास ही हैं; उस प्रकार चित्त में निर्मलता आने पर पता लगता है कि प्रभु समीप ही हैं । जो बच्चा मां के बिना रह नहीं सकता हो, उसे ऐसा अनुभव होता है । हम सब 'बडे' हो गये अतः माता ने चिन्ता छोड दी । हमने माता को विश्वास दिलाया कि हमारी संभाल नहीं रखोगी तो चलेगा । माता को जवाबदारी से मुक्त कर दी, परन्तु क्या हमारी स्थिति ऐसी है ? क्या हम जवाबदारी निभा सके ऐसे है ? गुरु की कब तक सेवा करें ? जब तक शिष्य क्षायिक भाव का प्रकाश प्राप्त न करे तब तक । फिर तो छोडे न ? नहीं । १५०० तापस केवली बन गये फिर कहा नहीं कि हम जाते हैं। २३८ 000 ॐ कहे कलापूर्णसूरि- २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy