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पहलवान सब बताता तब उसके सेवक उन उन स्थानों पर मालिश करते, मरहम लगाते, ताकि पुनः देह में स्फूर्ति आ जाये; परन्तु यदि पहलवान अपने सेवक को देह पर लगी चोट एवं लगे घावों के सम्बन्ध में कुछ बताये ही नहीं और कहे कि मुझे कुछ नहीं हुआ । मैं तो वीर हूं, शक्तिशाली हूं, ऐसा कह दे तो क्या उसकी देह में पुनः स्फूर्ति आयेगी ? अभिमान में रह कर जिसने नहीं बताया उसकी पराजय हुई । इसी तरह से चारित्र में भी अतिचार लगें तो तुरन्त गुरु के समक्ष बताकर प्रायश्चित ले लेना चाहिये ।
* चारित्र पर इतना अधिक बल क्यों दिया गया है ? मुक्ति के शाश्वत सुख की इच्छा हो तो चारित्र पालना ही पड़ता है । चारित्र इस भव में भी जीवन-मुक्ति का आनन्द प्रदान करता है । देवों तथा चक्रवर्तियों को भी जो प्राप्त न हो वह आनन्द इस चारित्र में प्राप्त होता है ।
ज्ञानसार में साधु के आनन्द के लिए 'तेजोलेश्या' शब्द का प्रयोग हुआ है । तेजोलेश्या अर्थात् आत्मिक सुख की अनुभूति । स्वयं को ही इस का पता लगता है परन्तु दूसरे को उसका तेज देख कर और उसके जीवन-व्यवहार से पता लगता है।
आत्म-तत्त्व का स्पर्श चारित्रवान् आत्मा करता है । सम्यग्ज्ञान वाला आत्मा जानकारी प्राप्त कर सकता है । सम्यग्दर्शनी को श्रद्धा होती है परन्तु चारित्रवान् ही उसका अनुभव कर सकता हैं ।
* ज्ञान-दर्शन-चारित्र मुक्ति का मार्ग है । जितनी ज्ञानदर्शन-चारित्र प्राप्ति में कमी उतनी आत्म-विकास में कमी और जितनी ज्ञान-प्राप्ति में कमी, उतनी दर्शन में कमी ।
आत्मा ही दर्शन है और दर्शन ही आत्मा है । आत्मा ही चारित्र है और चारित्र ही आत्मा है ।
वस्तु एवं वस्तु के नाम भिन्न होते ही नहीं हैं । वस्त्र एवं वस्त्र की श्वेतता भिन्न होती ही नहीं । गुण-गुणी में अभेद है, उस प्रकार ज्ञान-दर्शन-चारित्र से आत्मा को भिन्न नहीं कर सकते । जड़ में यह नहीं मिलता । जीव मात्र में यह होता है उस प्रकार जीव के अतिरिक्त कही भी नहीं होता । हमारी जो प्रवृत्ति है वह ज्ञान-दर्शन के लिए ही है न ? आत्म-कल्याण की ही है न ?
(२२८0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)