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________________ तो स्वाभाविक तौर पर जीवन में ही परोपकार था । जैन संघ में ही नहीं, प्रत्येक जाति में, मानव मात्र में परोपकार था । खेत में भी किसान पानी की प्यास लगने पर पानी के बजाय गन्ने का रस पिलाता था । आज भी अनेक व्यक्ति कुत्तों को रोटी, पक्षियों को दाना, गरीबों को अन्न देते हैं । इस कार्य में वे लाखों रूपये व्यय करते हैं । "परोपकार मेरा ही कार्य है। मेरी चिन्ता मुझे है । उस प्रकार जीव मात्र की मुझे चिन्ता करनी है। कम से कम समुदाय की चिन्ता तो करूं । इस प्रकार की भावना सब में जागृत हो तो एक भी समस्या उत्पन्न नहीं होगी ।" शरीर के किसी भी भाग में पीडा हो तो तुरन्त ही डाक्टर को बुला कर उपचार कराते हैं । जिस प्रकार शरीर की चिन्ता करते हैं, उस प्रकार संयम आपका देह है । उस पर कोई प्रहार न लगे, चोट न लगे, वह मलिन न बने उसकी सावधानी रखनी चाहिये । * जीव चार प्रकार के हैं - चारित्र अंगीकार करते समय शूर वीर, परन्तु फिर कायर । चारित्र लेते समय कायर परन्तु फिर शूर वीर ।। चारित्र ग्रहण करते समय शूर वीर और पालन करते समय भी शूर वीर । चारित्र अंगीकार करते समय कायर और पालन करते समय भी कायर । हम कैसे हैं ? * मन से, वचन से, काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करूंगा, न कराऊंगा, करनेवाले का अनुमोदन नहीं करूंगा । यह 'करेमि भंते' की हमने प्रतिज्ञा ली है, उसमें क्या कमी रहेगी ? कमी रहे तो क्या हमारे दिल पर चोट लगती है ? दो पहलवान कुश्ती कर रहे थे। कई दिनों तक उनकी कुश्ती चलती रही । जब दिन भर कुश्ती कर के वे पहलवान अपनेअपने स्थान पर पहुंचते तब उनके सेवक उन्हें पूछते कि आपको कहां चोट लगी है ? देह के किस भाग में प्रहार हुआ है ? एक (कहे कलापूर्णसूरि - २00ooooooooooo0000000 २२७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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