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________________ वि.सं. २०५३ १-५-२०००, सोमवार वै. कृष्णा-१२ : पालीताणा * प्रभु भले मोक्ष में गये, परन्तु उनका तीर्थ यहां है । अतः मुक्ति का मार्ग जानने एवं आचरण करने के लिए मिलता है। महापुरुषों की परिणति देखकर होता है कि मुझे भी इस मार्ग पर चलना चाहिये । मार्ग में भी जिस मार्ग से हम जाते हों, उसी मार्ग से अन्य लोग भी जाते हों तो हम कितने निर्भय रहते हैं ? इस मुक्ति-मार्ग पर चलते समय अनेक महापुरुष हमें हिम्मत देते हैं । मार्ग पर चल कर वे महापुरुष हमें बताते हैं कि आओ, इस मार्ग पर आओ । * यदि प्रभु के साथ प्रेम-सम्बन्ध जोड़े तो अवश्य उन्हें मिलने का हमारा मन होगा । व्यवहार में भी प्रिय पात्र हमसे दूर हो तो भी हम उसके नाम पत्र लिखते हैं, समाचार मंगवाते है; परन्तु क्या प्रभु के साथ प्रेम बांधा है, जोड़ा है ? प्रभु के साथ प्रेम बांधने का यही चिह्न है कि उनके मार्ग पर चलने का मन हो । * आज परोपकार सिखाना पड़ता है । प्राचीन काल में (२२६ 0 0 0 0 0 0 0 0 0 6600 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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