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________________ सिज्झंति चरणरहिआ, दंसण-रहिआ न सिज्झंति । चारित्र (साधुवेष) नहीं लिये हुए भरत आदि ने केवलज्ञान प्राप्त किया है, परन्तु समकित-विहीन किसी व्यक्ति ने केवलज्ञान प्राप्त किया हो वैसा आज तक नहीं हुआ । * आपने जीवनभर क्षमा रखी हो तो भी उस भरोसे न रहें कि यह क्षमा अब जाने वाली ही नहीं है। थोड़ा ही अवसर मिला और हम गाफिल रहे तो क्रोध भड़क उठने की पूर्ण सम्भावना है, क्योंकि हमारे गुण क्षायिक नहीं है, क्षायोपशमिक हैं । क्षायोपशमिक गुण अर्थात् कांच की भरनी (बरनी) कांच की बरनी (भरनी) को नहीं संभालोगे तो टूटने में देर नहि । यथाख्यात चारित्र में (ग्यारहवे गुणस्थानक में) आये हुए चौदह पूर्वी भी गिर सकते हों, ठेठ मिथ्यात्व तक पहुंच कर निगोद में चले जाते हों तो हमारी साधना तो पूर्णतः कच्ची है । आरूढाः प्रशमश्रेणि, श्रुतकेवलिनोऽपि च । भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसार - महो दुष्टेन कर्मणा ॥ - ज्ञानसार शशीकान्तभाई - साहेब ! कर्म-सत्ता को तोड़ने का अणुबम बना दें। पूज्यश्री - भगवान ने बना कर ही दिया है। तीक्ष्ण ध्यानयोग ही अणुबम है। गांडे बबूल देखे हैं न ? चाहे कितने काटो, परन्तु वे पुनः उगते ही रहते हैं । कर्म भी गांडे बबूल जैसे ही हैं । ऊपर-ऊपर से जब तक काटते रहोगे, तब तक पुनः पुनः उगते ही रहेंगे । कर्म को यदि मूल से उखाड डालना हो तो ध्यान की तीव्र अग्नि चाहिये । * आप अपने गुरु को जितनी शान्ति प्रदान करेंगे, उतनी शान्ति आपको प्राप्त होगी ही । विपरीत रूप से कहूं तो अशान्ति दोंगे तो अशान्ति मिलेगी। आम बोयेंगे तो आम मिलेंगे और बबूल बोओगे तो बबूल मिलेगा । प्रकृति का यह सीधा हिसाब है । [कहे कलापूर्णसूरि - २000000000000000000 २१९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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