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प्राप्त चारित्र कितना निर्मल बना है ? इसका निरन्तर निरीक्षण करते रहें । चारित्र को बिगाड़ने वाले कषाय हैं । सर्व पर्थम उन्हें उदय में आने ही न दें । यदि उदय में आ जायें तो पश्चाताप के द्वारा उन्हें निष्फल बना दें । चारित्रशुद्धि का यह उपाय है ।
जिन-भक्ति, गुरु-सेवा, साधु-वेयावच्च, स्वाध्याय-तत्परता आदि चारित्र-शुद्धि के लिए अनन्य परिबल हैं ।
स्वाध्याय करने वाले अनेक व्यक्ति सेवा से कतराते हैं - "ऐसे सेवा करते रहें तो अध्ययन कब करेंगे?" यह सोचकर सेवा से दूर रहने वाले समझ लें कि ऐसा सूखा स्वाध्याय आपका कल्याण नहीं करेगा । ज्ञान कदाचित् फलदायी हो या न हो, परन्तु सेवा तो फलदायी बनेगी ही । इसीलिए वेयावच्च को अप्रतिपाती गुण कहा है ।
संघ की ओर से तो हम सेवा लेते रहें (श्रावक संघ अपनी कितनी भक्ति कर रहा है यह सोचा है ?) और बड़ों की सेवा न करें यह क्या आपको उचित प्रतीत होता है ? वृद्धों की सेवा तो अमृत है। इससे अनेक गुणों की वृद्धि होती है ।
हम कभी वृद्ध नहीं होंगे ? वृद्ध होने पर हमारी कोई सेवा नहीं करेगा तो क्या अच्छा लगेगा ? तो क्या हमें वृद्धों की सेवा नहीं करनी चाहिये ? किसी की सेवा करनी नहीं और सबकी सेवा लेने की इच्छा करनी कहां का न्याय है ?
वृद्धों के स्थान पर आप स्वयं को कल्पना से लगा कर देखें, तो आपको सब कुछ समझ में आ जायेगा ।
"मैं वृद्ध हो गया हूं। मेरी कोई सेवा नहीं करता ।" आप ऐसी कल्पना करें। उस समय आप अपने हृदय की धड़कन देखें । मेरी ऐसी दशा हो तो वह मुझे उचित नहीं लगता तो दूसरों की दशा मुझे प्रिय लगती है, क्या यह ठीक है ? इस प्रकार स्वयं को पूछते रहें ।
* किसी समय चारित्र के परिणाम स्थिर रहने जैसे न हों तब भी श्रद्धा तो बनाये ही रखें । श्रद्धा-समकित होगा तो चारित्र आयेगा ही । परन्तु चारित्र (केवल वेष) हो और समकित न हो तो वैसा चारित्र मोक्ष प्रदान नहीं करेगा ।
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