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________________ प्रभु-भक्तों ने प्रभु का यह स्वरूप छिपाया नहीं है । अन्य व्यक्ति भी प्रभु की सम्पदा प्राप्त करें, प्रभु के रागी बनें, इसीलिए अपनी कृतियों में यह सब उडेल दिया है । जब तक हम गुण-सम्पन्न न बनें, तब तक प्रभु को छोड़ने नहीं हैं । इतना संकल्प कर लें । मैं स्वयं सोचूं - मुझमें समता की कितनी कमी है ? जब मन विषमता से भर जाये, समता चली जाये तब मैं प्रभु को याद करता हूं। मुझमें समता यदि इतनी अशक्त हो तो मैं प्रभु को कैसे छोड़ सकता हूं ? प्रभु का नाम लेते ही भक्त को प्रभु का स्मरण हो जाता है, उपकारों की वृष्टि याद आती है । हृदय गद्गद् हो जाता है । भक्त निर्भय है, मुझे किस बात की चिन्ता ? प्रभु यदि मेरे घर में है तो मोहराजा की क्या शक्ति कि वह भीतर प्रविष्ट हो सके ? 'तुझ मिल्ये स्थिरता लहूं' प्रभु ! आप मिलते हैं और मेरा चित्त स्थिर बनता है । बालक की तरह भक्त भगवान में माता का रूप देखता हैप्रभु, आप जाते हैं और मैं माता-विहीन बालक की तरह निराधार बन जाता हूं । प्रभु, आप निकट हैं तो जगत् की समस्त ऋद्धि निकट है । आप जाते हैं तब सब कुछ चला जाता है। प्रभु ! आपके चाहे अनेक भक्त हों, परन्तु मेरे तो आप एक ही हैं । हां, आपको यदि समय नहीं हो तो मुझे आप किसी अन्य का पता दीजिये जो मुझे आपके समान शान्ति प्रदान कर सके, परन्तु आपके समान अन्य है ही कौन ? भक्त के हृदय की ऐसी शब्द विहीन प्रार्थना हृदय में से सतत प्रवाहित होती रहती है । * सम्यक्त्व एवं चारित्र दोनों में से कोई एक पसन्द करने को कहे तो आप क्या पसन्द करेंगे ? चारित्र को पसन्द करें, क्योंकि चारित्र में समकित आ ही जाता है । समकित रहित 'चारित्र' चारित्र ही नहीं कहलाता । मुक्ति हेतु प्रयाण में समकित एवं चारित्र दोनों आवश्यक हैं। चारित्र समकित युक्त हो तो ही मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ हैं । कहे कलापूर्णसूरि - २0000000000000 00 २१७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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