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" दौड़त दौड़त दौड़त दौड़ियो, जेती मननी रे दौड़; प्रेम प्रतीत विचारो दूकड़े, गुरु-गम लेजो रे - जोड...।" फिर लगता है प्रभु तो ये रहे । आज तक मैं प्रभु को दूर मानता था, परन्तु वे तो मेरे अन्तर में ही बिराजमान थे ।
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किताब पढ़कर कोई वैद्य नहीं बनता, उस प्रकार गुरु के बिना कोई प्रभु को पा नहीं सकता । इसीलिए कहा है 'गुरुगम लेजो
जोड़ | "
* समता परिणामी साधु के लिए क्या मिट्टी और क्या स्वर्ण ? (कोई रुपयों की थैली रख जाये और कहे 'महाराज ! कुछ समय के लिए संभालना ।' तो हम इनकार करेंगे ।) क्या निन्दा या क्या स्तुति ? आगे बढ़ें तो क्या संसार अथवा क्या मोक्ष ? सब समान प्रतीत होता है ।
यस्य दृष्टिः कृपा वृष्टिः गिरः शमसुधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञान ध्यानमग्नाय योगिने ॥
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ज्ञानसार
सन्त की दृष्टि ! मानो करुणा की वृष्टि ! सन्त की वाणी मानो समता-अमृत का झरना ! ऐसे सन्त ज्ञान - ध्यान में सदा मग्न होते हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि - २
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भगवान के साधु भी ऐसे होते हैं तो भगवान कैसे होंगे ? हमें भगवान के ऐसे सच्चे साधु बनना है, ऐसा मनोरथ तो हम बनायें ।
* इस समय दादा की यात्राऐं करते हैं जो सम्यक्त्व को निर्मल करने की उत्कृष्ट क्रिया है । साधु को चारित्र मिलने पर भी तीर्थ-यात्रा करने का विधान है । सम्यक्त्व प्राप्त हो गया हो फिर भी उसे अधिक निर्मल बनाने के लिए इस प्रकार करना आवश्यक है ।
कळकळ २१३