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________________ कषायों का नाश करने के लिए ही चार मैत्री आदि भाव हैं । मैत्री आदि भावों के अभ्यास से जीवन में कटुता के स्थान पर मधुरता आती है। ___ मैत्री से क्रोध, प्रमोद से मान, करुणा से माया और मध्यस्थता से लोभ कषाय को जीता जा सकता है । * प्रथम सामायिक है, साम, मधुर परिणाम प्रकट होता है। दूसरी सामायिक है, सम, तुला परिणाम प्रकट होता है । तीसरी सामायिक है, सम्म, तन्मय परिणाम प्रकट होता है। यह समस्त विवेचन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा किया गया पू.पं. भद्रंकरविजयजी म.सा. ने ये समस्त पदार्थ दिये थे। जब यें पढ़ते हैं तब हृदय नाच उठता है । सम अर्थात् राग द्वेष के प्रसंगों में समता रखना, चित्त को प्रत्येक प्रसंग में समतोल रखना । यदि ये पदार्थ भावित करने हों तो पू. आनंदघनजी म.सा. द्वारा रचित श्री शान्तिनाथजी का स्तवन पक्का करें । "मान-अपमान चित्त समगणे, सम गणे कनक-पाषाण रे; वंदक-निन्दक सम गणे, इस्यो होय तू जाण रे ।" चित्त को तनिक विषम नहीं होने देना वह सम सामायिक है । ऐसा साधक प्रशंसा सुनने पर चले जाते है और स्वयं की निन्दा सुनने पर प्रसन्न होते हैं । वे मानते हैं कि गेहूं में से कंकड़ निकालने वाला तो महान् उपकारी है । उस पर क्रोधित होने का तो प्रश्न ही नहीं है । ___ 'निन्दक नियरे राखिये' - इसी अर्थ में कहा गया है। __ हमारा लेबल 'क्षमाश्रमण' का है, परन्तु भीतर माल क्या 'समता' का है ? ऊपर आकर्षक पैकिंग हो और भीतर माल नहीं हो तो आप क्या कहेंगे ? समता-विहीन हमें लोग क्या कहेंगे ? माध्यस्थ भाव से समता की सुगन्ध आती है । * भगवान ऐसे भोले नहीं है कि तुरन्त ही मिल जायेंगे । उनको मिलने के लिए अत्यन्त तड़पन, अत्यन्त ही लगन चाहिये । देखो पू. आनन्दघनजी म.सा. कहते है - (२१२ on assomsonam as कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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