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यहां से अनन्त गुने अधिक आत्मा मोक्ष में गये हैं ।
हिमालय के कई योगी जब नवकार बोलते हों; जैन परिभाषा में बात करते हों तब विचार आता है कि ये अपहृत आत्मा तो नहीं हैं ?
* इतने वर्षों से हम मोक्ष की साधना करते हैं और फिर भी जीवनमुक्ति का अंश भी प्राप्त न हो तो कहां कमी है - यह विचार क्यों नहीं आता ? ___ चलने पर भी मंजिल न आये, औषधि लेने पर भी रोग नहीं मिटे, तब कारण पूछने वाले हम मोक्ष के लिए पूछते नहीं हैं । साधना की कमाई कहां जाती है ? "अंधी पीसे और कुत्ते खायें ।" ऐसा तो नहीं हो रहा है न ?
अनीति के रुपयों से उस नैगम वणिक ने घेवर तो बनाये, परन्तु जब वे घेवर दामाद खाकर चला गया, स्वयं को कुछ भी नहीं मिला तब उसकी ज्ञानदशा जागृत हुई । वणिक की ज्ञानदशा इतनी तुच्छ घटना से जग जाती है तो हमारी ज्ञान-दशा क्यों नहीं जगती ?
साधु-जीवन प्राप्त होने के बाद ज्ञानदशा अत्यन्त दुर्लभ है। यह ग्रन्थ बताता है - 'सामन्नस्स वि लंभे, नाणाभिगमो य दुल्लहो होइ ।"
साधुत्व प्राप्त होने के बाद भी ज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ
भगवान के समक्ष नित्य बोलते है - "भवो भव तुम चरणों नी सेवा", भवो भव की बात बाद में ।" - मैं कहता हूं - इस भव का तो करो । इस जन्म में प्राप्त हो सके वैसे ज्ञान आदि के लिए तो प्रयत्न करो ।
मोक्ष के लिए हमें शीघ्रता क्यों नहीं है ? वाचना में बैठने का स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्रता है, परन्तु मोक्ष-साधना के लिए शीघ्रता है क्या ? ___अभी पेढ़ी के मनुष्य कहने के लिए आये थे - 'महाराज ! प्रत्येक चौमासे में यहां तलहटी में कष्ट होता है। आगे आने वाले आधे घंटे तक खाली नही करते, अतः पीछे वाले परेशान कहे कलापूर्णसूरि - २0
saas sasoon asam २०९