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होते हैं । इस पर से मुझे दूसरा विचार आया - हम मोक्ष में जाकर मनुष्य की सीट खाली नहीं करते, अतः हमारे पीछे रहने वाले जीव परेशान हो रहे हैं । उनका हृदय कह रहा है - 'हटो, हटो, हटो, हमारे लिए स्थान खाली करो ।"
हम मोक्ष में जाये तो पीछे वालों के लिए स्थान बनें न ? परन्तु हमें कहां शीघ्रता है ?
आप श्रावक-जीवन में जितने नियमों का पालन करते थे, क्या उतने नियमों का यहां पालन करते हैं ? सामायिक में रहे हुए श्रावक को क्या आप बातें करने की या सोने की छूट देते हैं ? हम जब सामायिक में होते तब क्या ऐसे करते थे ? यदि नहीं करते थे तो साधु-जीवन में ये कार्य कैसे हो सकते हैं ? इसीलिए साधु-जीवन में स्वाध्याय को विशेष महत्त्व दिया गया है ।।
स्वाध्याय चालु रखने से ही समता भाव आ सकता है ।
* चन्दन को आप जलायें, या अथवा काटें, परन्तु क्या वह अपनी सुगन्ध छोड़ता है ? सुगन्ध चन्दन का स्वभाव है। हमारी समता ऐसी बन जानी चाहिये, अन्यथा नाम मात्र की समता किस काम की ?
वन्दन करने वाले श्रावक हमें क्षमाश्रमण ('इच्छामि खमासमणो', 'खमासमणो' अर्थात् क्षमाश्रमण) कहते हैं । सचमुच हम क्षमाश्रमण हैं ?
अनेक के नाम शान्तिविजयजी, क्षमाविजयजी होते हैं । नाम के पीछे संकेत होता है । नाम अच्छा है परन्तु गुण न हों तो ?
पू.पं. मुक्तिविजयजी म. (वि. संवत २०१२, लाकड़िया) कई बार एक कथा कहते - 'एक बावा का नाम शीतलदास था । अत्यन्त शान्त स्वभावी के रूप में उनकी ख्याति थी, परन्तु एक लड़के को विश्वास नहीं हुआ । वह उनकी परीक्षा करने गया । वह बार-बार पूछने लगा - 'बाबाजी ! बाबाजी ! आपका नाम क्या है ?
एक-दो बार बाबाजी ने शान्ति से उत्तर दिया - 'बच्चा ! मेरा नाम शीतलदास है । परन्तु बार-बार पूछने पर उनका दिमाग फिरा । बाबाजी हाथ में चीमटा लेकर दौड़े । [२१०000 www m omos कहे कलापूर्णसूरि - २)