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________________ चला जाये परन्तु है वह आत्मा का सुख । ___ अब तक हम बाह्य पदार्थों में सुख मानते आये हैं । मित्रादृष्टि में प्रवेश होते ही आत्मानन्द की झलक प्रारम्भ हो जाती है । आत्मा का आनन्द तो भीतर विद्यमान ही है । भीतर आनन्द का निरवधि सागर हिलोरे ले रहा है, परन्तु प्रदेश-प्रदेश में लगी हुई अनन्त कार्मण वर्गणाओं ने उक्त सुख रोक रखा है । केवलज्ञान हम सबके भीतर विद्यमान ही है। ज्ञान की तारतम्यता के द्वारा हमें उसकी प्रतीति होती रहती है। ज्ञानावरणीय कर्म की आवश्यकता ही इसलिए पड़ी, क्योंकि भीतर अनन्त ज्ञान विद्यमान है। उक्त ज्ञान प्रकट न हो जाये जिसकी सावधानी ज्ञानावरणीय कर्म रख रहा है। * "भगवन् ! आप प्रसन्न हों; अतः मैं आपके द्वार पर आया हूं । प्रभु ! प्रसन्न हों ।" इस प्रकार भक्त कहता है । भगवान कहते हैं - "तू प्रसन्न हो, तो मैं प्रसन्न ही हूं।" न्याय की भाषा में इसे 'अन्योन्याश्रय दोष' कहते हैं । 'तू प्रसन्न हो तो मैं प्रसन्न होऊं ।" वह कहता है कि पहले तू फिर मैं । कई बार देखते हैं न? अनेक व्यक्ति कहते हैं - "तू दीक्षा ग्रहण कर, फिर मैं ।' वह भी कहता है - 'पहले तू, फिर मैं ।' __ कलिकाल सर्वज्ञश्री हेमचन्द्रसूरिजी कहते हैं - 'हे प्रभु ! यह 'अन्योन्याश्रय दोष' आप ही दूर करें ।' "अन्योन्याश्रयं भिन्धि प्रसीद भगवन् मयि ।" प्रभु को प्रसन्न करने की विनती केवल हेमचन्द्रसूरिजी ही नहीं, गणधर भी कहते हैं - "तित्थयरा मे पसीयंतु ।" हे भगवन्तों ! मुझ पर प्रसन्न हों । भगवान कदापि वैसे ही प्रसन्न नहीं होते, वैसे ही दर्शन नहीं देते । उसके लिए उत्कट अभिलाषा, अदम्य उत्कण्ठा चाहिये । इससे भी अधिक कहूं तो आंखो में आंसू चाहिये । बालक बनना हम भूल गये हैं । जब हम बालक थे तब रोते थे और मां आती । अब तो बड़े हो गये न ? अब क्या रो सकते हैं ? प्रभु के लिए रूदन करो । वे दौड़ते हुए आयेंगे । (२०६ 6 6 6 6 6 6 6 RC कहे कलापूर्णसूरि - २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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