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________________ हों, परन्तु उसके लिए तो हम दादा की शीतल छाया में एकत्रित हुए हैं । मिलेगा तो यहां से मिलेगा । दादा का दर्शन सुलभ नहीं है, उसके लिए चढ़ना पड़ता हैं । प्रभु को प्राप्त करना हो तो इसी प्रकार से गुणस्थानों में से गुजरना पड़ता है। _ हिंगलाज के हड़े' से हम कदापि लौटते नहीं हैं, परन्तु ग्रन्थिभेद करते हुए कई बार लौटे हैं । * कई बार शासन-प्रभावना के नाम पर, शास्त्र ज्ञान के नाम पर अथवा अन्य किसी नाम पर अहंकार का ही पोषण किया है । आत्मा की प्राप्ति न हो तब तक संभव है कि अन्य गुण भी हमें तार न सकें । इसीलिए पू. उपा. यशोविजयजी ने कहा है - "जिम जिम बहुश्रुत बहुजन सम्मत, बहु शिष्ये परिवरियो; तिम तिम जिन-शासननो वैरी, जो नवि निश्चय धरियो ।" * ये आदीश्वर दादा दर्शन देने के लिए ही हैं । यदि देव दर्शन नहीं देंगे तो दूसरा कौन दर्शन देगा? साधु-जीवन मिल गया, अतः सम्यग् दर्शन प्राप्त हो ही गया है, इस भ्रम में न रहें । प्रभु-दर्शन की तड़प आप आनन्दधनजी के स्तवनों में देख सकते हैं । आनन्दधनजी के स्तवनों में सम्पूर्ण साधना-क्रम है । क्रमशः १४ गुण स्थानक हैं, ऐसा प्रभुदास बेचरदास पारेख ने लिखा है। प्रथम स्तवन में प्रभु का प्रेम, प्रभु की लगन; दूसरे स्तवन में प्रभु के मार्ग की खोज आदि स्पष्ट प्रतीत होती है । तेरहवे स्तवन में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति है ।। * नरसैंया हो या मीरा हो अथवा चाहे जो हो, जिस नाम से भी प्रभु को प्रेमपूर्वक चाहते हों, उन्हें अन्त में प्रभुदर्शन होंगे ही । समस्त नदियां अन्त में सागर में मिलती हैं; उस प्रकार सभी प्रभु के नमस्कार वीतराग प्रभु की ओर ले जाते है। * मित्रादृष्टि में प्रवेश होने पर आत्मिक आनन्द की झलक प्रारम्भ हो जाती है । चाहे वह घास के तिनके की तरह जल्दी (कहे कलापूर्णसूरि - २00000000000000000 २०५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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