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"आत्माऽज्ञानभवं दुःखम् ।" समस्त दुःख आत्मा के अज्ञान में से उत्पन्न हुआ है ।
* कर्म के चंगुल में से मुक्त होने का मार्ग यह है - मिथ्यात्व नहीं, सम्यक्त्व, अविरति नहीं, विरति, प्रमाद नहीं, अप्रमाद, कषाय नहीं, अकषाय । अशुभयोग नहीं, शुभ योगों में प्रवृत्ति ।
ऐसा करेंगे तो ही कर्मों में से मुक्ति हो सकेगी, दबा हुआ ऐश्वर्य प्राप्त हो सकेगा ।
पंचाचार में प्रथम ही दर्शनाचार अथवा चारित्राचार नहीं, परन्तु ज्ञानाचार है, वह ज्ञान की मुख्यता बताता है ।
ज्ञानाचार का पालन करने से अपना ज्ञान स्थिर एवं सुदृढ रहता है ।
ज्ञान के आठों आचार जीवन में बुने हुए हैं न ? शिक्षक पाठ देता है, और विद्यार्थी दूसरे दिन उसे याद करके सुनाता है। यहां आप पाठ याद करते हैं ?
आठों आचार ज्ञान की वृद्धि करने वाले हैं, यह न भूलें ।
* सम्यक्त्व से पूर्व तीन करण करने पडते हैं । 'करण' अर्थात् समाधि । करण के समय आत्म-शक्ति इतनी बढ़ती है कि कदापि नहीं टूटी हुई राग-द्वेष की गांठ तब टूट जाती है ।
अचरम यथाप्रवृत्ति करण तो अभव्य को भी होता है। महत्त्वपूर्ण बात है चरम यथाप्रवृत्तिकरण की । चरमयथाप्रवृत्तिकरण का प्रमाण क्या ? उसे अब राग-द्वेष के तीव्र भाव नहीं होते । शरीर में आत्मबुद्धि टलती जाती है ।
अभी तक शरीर में से मेरी आत्म-बुद्धि टली नहीं है। हां, उसके लिए प्रयत्न चालु है । भगवान को नित्य प्रार्थना करता हूं। ___अपवित्र, अनित्य एवं अशुचि शरीर में पवित्रता, नित्यता एवं शुचिता की बुद्धि रखना ही अविद्या है, अविवेक है। विवेक के द्वारा ही यह अविद्या तोड़ी जा सकती है।
शरीर एवं आत्मा का भेद-ज्ञान नहीं हुआ हो तो निराश न
(२०४00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)