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________________ तैयार ही नहीं हुए । अन्त में उत्प्रव्रजित बनकर राजा बने । लघुभ्राता पुण्डरीक राजा से श्रमण बने । मानव जीवन में श्रमणत्व पाकर भी कण्डरीक सातवी नरक में गये । हमें ऐसा बनना है ? उच्च भूमिका में आने के बाद पतन न हो यह विशेषतः देखना है । "ऊंचा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । ___पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥" * ज्ञान या दर्शन को चारित्र से भिन्न नहीं करें । दर्शन एवं ज्ञान का मिश्रण ही सम्यक् चारित्र कहलाता है । दर्शन-ज्ञानरहित चारित्र सच्चे अर्थ में चारित्र कहलाता ही नहीं है । __. “ज्ञानदशा जे आकरी, ते चरण विचारो; निर्विकल्प उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो..." जब दर्शन युक्त ज्ञान तीक्ष्ण बनता है तब वह स्वयं चारित्र बन जाता है । पू. उपा. यशोविजयजी म. प्राप्त किये हुए पुरुष थे । स्वयं ने जो प्राप्त किया वे अन्य व्यक्ति भी प्राप्त करें उस उद्देश्य से उन्होंने १२५, १५०, ३५० आदि गाथाओं के स्तवन बनाये । उन्हें चिन्ता थी कि मुझे प्राप्त हुआ है वह मेरे अनुगामियों को क्यों न प्राप्त हो ? पिता को चिन्ता होती है - "मैंने यह सम्पत्ति प्राप्त की है। मेरे ये पुत्र सम्पत्ति संभाल सकेंगे न ? उसके लिए वह अनेक उपाय सोचता है । उपा. यशोविजयजी ने भी स्वयं को प्राप्त साधुत्व का आनन्द दूसरों को भी मिले । इसीलिए इन कृतियों की रचना की है। * अपने भव-भ्रमण का मूल कारण अज्ञान है । अज्ञान के कारण हम जानते ही नहीं हैं - मेरा स्वरूप कैसा है ? किसने पचा लिया है ? कर्मसत्ता ने हमारा ऐश्वर्य पचा लिया है - यह वस्तु हम जानते नहीं है, इसीलिए संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं । करोड़पति के पुत्र होते हुए भी रोड़पति बन कर फिर रहे हैं । जिस वस्तु का ज्ञान ही न हो, उसे प्राप्त करने के लिए जीव प्रयत्न किस प्रकार करे ? इसीलिए अज्ञान को समस्त दुःखों का मूल कहा गया है । (कहे कलापूर्णसूरि - २000000000000000000 २०३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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