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है। साधु-जीवन भी आस्वादन हेतु है । मिठाई का तो रसास्वादन करते हैं, सच्चे साधु-जीवन का स्वाद कब लेंगे ? साधु-जीवन के आस्वादन की तमन्ना भी जागृत हो जाये तो भी काम हो जाये।
* शरीर तो आत्मा का घर है। घर में निवास करने वाली आत्मा है । क्या आत्मा के सम्बन्ध में कोई रुचि जगी ? उसकी रुचि अध्यात्म-साधना की प्रथम कदम है । इस रुचि को ही हम सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
जड़ के प्रति रुचि घटे बिना आत्म-रुचि जागृत नहीं होती। भगवान स्वयं हमें सच्चिदानंदमय के रूप में देखते हैं । यदि हमारा स्वरूप सच्चिदानंदमय के रूप में हो ही नहीं तो कैसे देखेंगे ?
संसारी जीव तो विषय-कषायों से, कर्मों से, क्लेशों एवं संक्लेशों से परिपूर्ण हैं । ऐसे जीवों को सच्चिदानन्द के रूप में देखने क्या भ्रम नहीं है ? नहीं, पू. उपा. यशोविजयजी म. कहते हैं - 'चाहे जैसे संसारी जीव प्रतीत होते हों तो भी सत्ता से सभी जीव सिद्ध स्वरूपी ही हैं । परन्तु स्वयं को सिद्ध स्वरूपी जानकर अभिमान करने की आवश्यकता नहीं है कि मैं तो सिद्ध स्वरूपी
निश्चयनय कहता है - आप सिद्ध स्वरूपी हैं । व्यवहारनय कहता है - आप संसारी हैं । जब निराशा आ जाये तब निश्चयनय याद करें । जब अहंकार आ जाये तब व्यवहारनय याद करें ।
* मनुष्य-जन्म कर्म-बंधन के लिए प्रशंसनीय नहीं है। मनुष्य सातवी नरक में भी जाये, परन्तु उस कारण वह प्रशंसनीय नहीं है। मनुष्य कर्म क्षय कर सकता है इसीलीए उसका जन्म प्रशंसनीय है।
* कंडरीक ने हठ करके ज्येष्ठ भ्राता के पास दीक्षा ग्रहण की, एक हजार वर्षों तक दीक्षा पाली, परन्तु अन्त में रसना की आसक्ति ने उन्हे जकड़ लिया । अनुकूलता छोडना अत्यन्त ही कठिन है । पालीताणा में अनुकूलता जकड़ न ले यह देखना । अनुकूलता का राग खतरनाक है ।
उनके परिणाम इतने बिगड़ गये कि वे स्थान छोड़ने के लिए (२०२oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)