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वि.सं. २०५२, काकटुर(नेल्लुर), वै.सु. ७
२७-४-२०००, गुरुवार वै. कृष्णा-८ : पालीताणा
* जो प्रभु के ज्ञानामृत का पान करता है, वह अजरामर बन जाता है । जिन-वचन तो अमृत हैं ही, परन्तु उनका केवल आदर करो तो भी काम हो जाये ।। "जइ इच्छह परमपयं, अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे ।
ता तेलुक्कुद्धरणे जिणवयणे आयरं कुणह ॥" जिन-वचनों का आदर हमें उसके पालन की ओर ले जाता
जिन-वचनों से हमें ज्ञात होता है कि प्राप्त सामग्री कितनी दुर्लभ है ? १५ दुर्लभ वस्तुओं में से १२ वस्तु तो व्यवहार से प्राप्त हो गई हैं, केवल तीन ही बाकी हैं - क्षपकश्रेणि, केवलज्ञान तथा मोक्ष ।
द्रव्य से भी जैन कुल में उत्पन्न हो वह कितनी पुन्याई कहलाती
जिन-वचनों की श्रद्धा एवं श्रावक-जीवन भी दुर्लभ गिने जाते हैं, तो साधु-जीवन की तो बात ही क्या करें ?
* कोई व्यक्ति प्राप्त मिठाई रख नहीं देता, आस्वादन करता (कहे कलापूर्णसूरि - २00oooooooooooooooo00 २०१)