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कुत्ती है । उसमें से उज्ज्वल दंत-पंक्ति तुल्य कुछ खोज निकालना चाहिये ।
प्रभु की निष्फल देशना का भी सफल रहस्य है कि सर्व विरति के बिना तीर्थ की स्थापना नहीं हो सकती ।।
* दीक्षा ग्रहण की तब तो वैराग्य था । अब है या वह उफान शान्त हो गया ? सच्चा वैराग्य दिन प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है । दुकान खोलें उस दिन कमाई हो और बाद में न हो तो क्या चलेगा ?
* प्रतिमा-दर्शन,, जैन दर्शन, सम्यग्दर्शन, आत्म-दर्शन, प्रभु-दर्शन - ये सभी दर्शन के प्रकार हैं । वास्तव में तो ये सभी दर्शन होते हैं, तब एक साथ ही होते हैं ।
* संतों की वाणी निकलने के पांच हेतु हैं - प्रबोध, विवेक, हित, प्रशम एवं सम्यक् तत्त्व का उपदेश ।
* जो सुमार्ग पर ले जाये वह सन्मति, जो कुमार्ग पर ले जाये वह दुर्मति ।
* आपके भीतर तीव्र जिज्ञासा हो तो योग्य, मार्ग-दर्शक गुरु मिलेंगे ही । कदाचित् कोई गुरु नहीं मिले तो पुस्तक मिले । पुस्तक खोलते ही आपको जो चाहिये वही पृष्ट मिलता है ।
* सज्जनों की वाणी प्रबोध के लिए होती है । प्रबोध उसे कहते हैं जो विवेक जागृत करे, स्व-पर का भेद बताये और देह-आत्मा की भिन्नता स्पष्ट करे ।
हम दूसरा सब कुछ जानते हैं केवल आत्मा को छोड़कर। नौ तत्त्वों में प्रथम तत्त्व जीव-तत्त्व रखा । इस जीव-तत्त्व से ही हम दूर रहेंगे तो कैसे चलेगा ?
* 'मूढ़े अम्हि पावे' 'प्रभु ! मैं मूढ हूं, पापी हूं।' यह कौन कहता हैं ? समर्थ ज्ञानी । और हम स्वयं को सर्वज्ञ मानते हैं !
नौ पूर्वी आर्यरक्षित जैसे को भी ज्ञान-दाता गुरु ने कहा था कि अभी तक तूने बिन्दु जितना अत्यन्त कठिनाई से अध्ययन किया है । अभी तो समुद्र जितना अध्ययन बाकी है ।
स्व-पर बोध प्राप्त करने के लिए तत्त्वज्ञान के ग्रन्थों का गहन अध्ययन आवश्यक है । (२0056666666666
0 कहे कलापूर्णसूरि - २