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कर्म एवं जीव, दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं । हंस रुपी विवेकी मुनि ही दूध एवं पानी को अलग करने की क्षमता रखते हैं । यशोविजयजी उपाध्याय ने यह बात पन्द्रहवे अष्टक में कही है । इस भिन्नता का ज्ञान कराने की दिशा में सहायक नहीं हो सके वह सच्चा ज्ञान नहीं कहलाता, सम्यग् प्रबोध नहीं कहलाता।
'हिआहिआभिण्णे सिया', 'हिताहिताभिज्ञः स्यां ।' 'मैं हित-अहित का ज्ञाता बनूं' ऐसी पंचसूत्रकार की मांग में विवेक की ही मांग है ।।
* माषतुष मुनि जितना जानते थे, उससे आप अधिक जानते होंगे । फिर भी माषतुष मुनिने कैसे कल्याण प्राप्त कर लिया ?
नहीं चलने वाली मोटर, चलने वाली मोटर के साथ बंधी हुई हो तो चलेगी कि नहीं ?
माषतुष मुनि की मोटर गुरु की मोटर के साथ बंधी हुई थी।
* जो स्वयं का हित करता है वह दूसरे का हित करेगा ही । दूसरे का हित करने वाला अपना हित करता ही है । स्व एवं पर का हित अलग नहीं है । दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं ।
जिस दिन परोपकार का कार्य करने को नहीं मिले, उस दिन क्या आनन्द आता है ?
* मैं तो लाउड स्पीकर का भोंपू ह । भोंपू बोलता नहीं है, किसी का बोला हुआ केवल आपके पास पहुंचाता है । मैं भगवान द्वारा कहा हुआ केवल आप के पास पहुंचाता हूं । यहां मेरा कुछ भी नहीं है ।
* जो अपने स्वयं के हित में प्रवृत्ति करता है, वह सम्पूर्ण विश्व के हित में प्रवृत्ति करता ही है। अपना हित अन्य के हित के हित से भिन्न नहीं है ।
केवलज्ञानियों के द्वारा बताये हुए अनुष्ठानों में स्व-पर का हित न हो, ऐसा सम्भव ही नहीं है ।
* आज परिषह अथवा उपसर्ग सहने नहीं पड़ते । कामदेव श्रावक, आनन्द श्रावक की तरह कोई हमारी परीक्षा लेने के लिए उपसर्ग करे वैसा होता ही नहीं । शायद कोई परीक्षा कर भी ले (कहे कलापूर्णसूरि - २00000000000000000000 ३)