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उत्तर विराधना टाली जा सकती है। आशातना तो आपको
चारों ओर से तोड़ डालती है । विराधना जीवों की होती है। आशातना वयोवृद्धों (बड़ों) की, गुणवानों की होती है । गुणवानों की आशातना अत्यन्त ही भयंकर है । गुणवानों की आशातना होने से हम बोधिदुर्लभ बनते हैं ।
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कूलवालक मुनि आशातना से ही संसार में डूब गये थे । विराधना से तो फिर भी छूट सकते हैं, आशातना से छूटना कठिन है । हमारा संसार - परिभ्रमण आशातना से हुआ है ।
पानी आदि की विराधना करने वाले अतिमुक्तक छूट सके थे, परन्तु भगवान की और गुरु की आशातना करने वाले गोशाला एवं कूलवालक आदि का छूटना कठिन है ।
'तीरथ नी आशातना नवि करिये' पूजा की इस ढाल में आशातना के फल पढ़े हैं न ? तीर्थ दो प्रकार के हैं स्थावर एवं जंगम । दोनों की आशातना से बचना है । आराधना करते रहें और आशातना भी करते रहें तो हमारा ठिकाना कब पड़ेगा ?
दूसरे व्यक्ति मानें या न मानें । दूसरे अपने हाथ में नहीं हैं । हम स्वयं अपने हाथ में हैं, उसे सुधार सकते हैं ।
दूसरों को मनवाने के लिए अपना पुन्य चाहिये । उनका भी सुधरने का पुन्य चाहिये । यह सब अपने हाथ में नहीं है ।
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पू. रत्नाकरविजयजी हमारे दीक्षा-दाता थे । फलोदी में रजोहरण एवं वासक्षेप उन्होंने दिये थे । वे इतने आराधक थे कि उनकी तुलना करने वाले अन्य कोई देखने को नहीं मिलें ।
पू. रत्नाकरविजयजी की एक बात कहूं ?
कभी तो वे काउस्सग्ग करते, कभी वे भगवान के चित्र के समक्ष त्राटक करते । ऐसा करते हुए कभी नींद आ जाये तो वे स्वयं ही अपने गाल पर थप्पड़ मार देते 'तुझे नींद आती है, ले लेता जा ।'
क्या आप खुद ऐसा कर सकेंगे दूसरा तो कौन आपको थप्पड़ मार सकता है ? यह कार्य आप ही कर सकते हैं । आप नहीं करो तो अन्य कोई नहीं कर सकेगा ।
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( कहे कलापूर्णसूरि २
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