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________________ माता-पिता ! आपकी कोई विराधना की हो तो मुझे क्षमा करें ।" 'इरियावहियं' में ऐसा भाव है । अपने अनुष्ठानों में कदम-कदम पर ये तीन (शरणागति, दुष्कृतगर्हा, सुकृत-अनुमोदना) पदार्थ बुने हुए ही हैं । अन्यत्र कहीं भी हम अपनी गुप्त पापमय बातें नहीं कर सकते । कदाचित् गुरु के समक्ष भी नहीं कर सकते, परन्तु भगवान के समक्ष तो कर सकते हैं न ? भगवान के समक्ष दुष्कृत-गर्दा अवश्य करें । यहां शास्त्रकार सर्व प्रथम चारित्र-पालक की अनुमोदना करने का कहते हैं - जो माता-पिता आदि सभी सम्बन्ध छोड़कर जिनोपदिष्ट धर्म का पालन करते हैं वे धन्य है । चारित्र के योग ही ऐसे हैं कि यहां केवल कमाई ही कमाई है । वणिक् कदापि हानि का धन्धा नहीं करता । जिस दिन प्रसन्नता बढ़ती है। वह दिन कमाई का समझें, अप्रसन्नता संक्लेश बढ़ें वह हानि का दिन समझें । * गुण समृद्ध चारित्रवान् आत्मा मरणान्त कष्ट में भी उद्विग्न नहीं होता, वह सामान्य रोग में क्या उद्विग्न होगा ? चाहें या न चाहें, मांगे या न मांगे, परन्तु मृत्यु कोई रुकनेवाली नहीं है । एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो मरा नहीं है । मृत्यु सुनिश्चित है, परन्तु वह मृत्यु इस प्रकार हो, समाधि पूर्वक और आराधना पूर्वक हो कि मृत्यु भी महोत्सव रूप बन जाये । मृत्यु की मृत्यु हो जाये । (गाथा १०१) जिस प्रकार भिखारी को चिन्तामणि प्राप्त हो जाये, उस प्रकार हमें यह चारित्र प्राप्त हो गया है, यह मानें; परन्तु हमें ऐसा कभी लगता नहीं है । छः अरब की वर्तमान जन-संख्या में केवल दस हजार के लगभग (समस्त सम्प्रदाय मिलकर) साधु-साध्वी हैं । जन-संख्या के अनुपात में देखें तो आटे में नमक जितनी भी हमारी संख्या नहीं है। दस हजार में भी सच्चे साधु कितने हैं ? योगसारकार की भाषा में कहूं तो - 'द्वित्राः' दो-तीन ही ऐसे तत्त्वज्ञ पुरुष होंगे । कहे कलापूर्णसूरि - २0mmmmmssssssssssmom १८५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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