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हमारा नम्बर उन दो-तीन में लगे, अतः मेरा यह प्रयास है।
इस चारित्र की दुर्लभता कभी भी समझ में आती है ? जगत् में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां अनन्त बार हमने जन्म-मरण किया न हो । ऐसे इस संसार में चारित्र केवल यहीं मिला है। ऐसा चारित्र-रत्न पाकर जो अपनी आत्मा को मोक्ष-मार्ग में जोड़ नहीं सकता वह सचमुच दयनीय है, करुणास्पद है। उसकी पुन्यहीनता का वर्णन करने के लिए कोई शब्द नहीं है । (गाथा १०२)
चारित्र-धर्म में विचलित होना अर्थात् जहाज में बैठ कर उसमें छेद करने । जहाज में बैठ कर छेद करने वाले हम संसारसागर को कैसे तैरना चाहते है ? यह समझ में नहीं आता ।
आवश्यकता नहीं है - क्षमा हो तो बख्तर (कवच) की । कोध हो तो शत्रु की । शांति हो तो आग की । मित्र हो तो दिव्य औषधि की । दुर्जन हो तो विष की । लज्जा हो तो आभूषणों की । सुकाव्य हो तो राज्य की । लोभ हो तो अवगुणों की । पिशुनता हो तो पाप की । सत्य हो तो तप की । पवित्र मन हो तो तीर्थ की । सौजन्य हो तो गुणों की । स्व महिमा हो तो अलंकारों की । सुविधा हो तो धन की । अपयश हो तो मृत्यु की ।
___ - भर्तृहरि ४
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