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क्रोध, मान, माया आदि के संस्कारों के विरुद्ध हमें सतत युद्ध करते रहना है और विजयी बनते रहना है । हारकर बैठना नहीं
* सिद्धाचल पर पू. आत्मारामजी म. स्व-निन्दा करते हुए कहते हैं -
"अब तो पार भये हम साधो श्री सिद्धाचल दर्श करी;
ज्ञानहीन गुण-रहित विरोधी, लम्पट धीठ कषायी खरो; तुम बिन तारक कोई न दीसे, ज्यों जगदीश्वर सिद्ध-गिरो ।" कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी कहते हैं -
"त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः शमरसोर्मयः । पराणयन्ति मां नाथ, परमानन्द सम्पदाम् ॥" "इतश्चानादि-संस्कार-मूच्छितो मूर्च्छयत्यलम्;
रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ?" हे प्रभु ! एक ओर तेरा शासन मुझे उपर खींच रहा है तो दूसरी और अनादि के राग आदि के संस्कार मुझे नीचे खींच रहे हैं । प्रभु ! मैं क्या करूं ?
क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी ।
मोहाद्यैः क्रीडयैवाहं ! कारितः कपिचापलम् ॥ कभी आसक्त, कभी अनासक्त, कभी क्रुद्ध, कभी शान्त मेरे मन की स्थिति मुझे ही समझ में नहीं आती । आप के समान नाथ मिले, फिर भी मेरी यह दशा ? अमुक तो ऐसे अधम पाप किये हैं कि कहने में जीभ नही चलती ।
ऐसे महान् ज्ञानी आचार्य भी ऐसा क्यों कहते होंगे ? यह भी आराधना का एक प्रकार है ।
कर्म बन्धन करने की योग्यता सहजमल । कर्म तोड़ने की योग्यता तथाभव्यता ।
तथाभव्यता को परिपकव करने के तीन उपायों में (शरणागति, दुष्कृतगर्दा और सुकृत-अनुमोदना) दुष्कृत गर्दा भी एक उपाय है। आप तथाभव्यता को परिपकव (दुष्कृत गर्दादि) करने का प्रयत्न करो तो आपका मोक्ष रोकने की किसी में शक्ति नहीं है ।।
'इरियावहियं' क्या है ? स्व-दुष्कृत की गर्दा है । "हे जीव
|१८४0mmoonmoooooooooomno कहे कलापूर्णसूरि - २)