SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि आप धर्म की ओर एक कदम आगे बढ़े तो भगवान भी आपको धन्यवाद देते हैं । * यहां दादा वैसे ही दर्शन नहीं देते । वे पूरी परीक्षा करके दर्शन देते हैं । एक घंटा जाने में और एक घंटा आने में लगता है । इतना श्रम करने के बाद में भगवान के दर्शन मिलते हैं । वहां हृदय कैसा नृत्य करता है ? भगवान की शान्त रसमय मूर्ति निहार कर हृदय नाच उठता है न ? भगवान के समक्ष दिल खोलना । अत्यन्त सरल बन कर अन्तर की बातें करना । __ भगवान बोलने के लिए तत्पर होते हैं, बोल रहे होते हैं, परन्तु हम भगवान की भाषा समझते नहीं हैं । मुझे तो अनेक बार अनुभव होता है । भक्ति जब परम पराकाष्ठा पर पहुंचती है तब भगवान के मौलिक दर्शन होते हैं । भगवान मिलना चाहते हों, हमसे आलिंगन करना चाहते हों वैसा प्रतीत होता है, परन्तु इसके लिए आपके पास भक्त का हृदय होना चाहिये । यहां तार्किक हृदय का काम नहीं है। आप रोज दादा के पास जाते हैं, रोज कुछ तो मांगते ही जाना । "प्रभु ! मुझे क्रोध सताता है, माया सताती है ।" आदि प्रार्थना करें । उक्त प्रार्थना में जितने अधिक आंसू आयेंगे, उतनी अधिक कर्म-निर्जरा होगी । * जितनी संसार में अपनी निंदा-टीका होगी, उतने अधिक कर्म-क्षय होंगे । "स्व-प्रशंसा सुनकर अप्रसन्नता हो, स्व-निन्दा सुनकर प्रसन्नता हो ।" ऐसी मनः स्थिति हो तब समझें कि अब साधना जमी है। इस प्रकार मुनिसुन्दरसूरिजी ने अध्यात्म कल्पद्रुम में कहा है । * प्राण-घातक उपसर्ग करनेवाले के प्रति भी क्षमा प्रदान करने वाले पूर्व ऋषि याद आयें तो अपराधी के प्रति भी कदापि क्रोध नहीं आयेगा । * बाहर का युद्ध तो कभी ही होता है । यह युद्ध न हो इसमें ही हमारी भलाई है, परन्तु अपना अन्तरंग युद्ध चालु है । (कहे कलापूर्णसूरि - २wwwwwwwwwwwwwwwwww १८३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy