________________
याद हो गया, क्योंकि आपने थप्पड़ मारी फिर भी मुझे क्रोध नहीं आया ।"
पाठ इस प्रकार पक्का करना है, अक्षरों से नहीं, आचरण से पक्का करना है।
द्रोणाचार्य को तो एक युधिष्ठिर मिला । यहां कोई 'युधिष्ठिर' मिलेगा ?
प्रदर्शक ज्ञान से हम चकाचौंध हो चुके है । प्रदर्शन नहीं, अपना ज्ञान प्रवर्तक होना चाहिये ।
* ज्ञान प्रकाशरूप है । ज्ञान का महत्त्व अभी तक हमने समझा नहीं । हम क्रिया में जितना समय देते हैं, उतना ज्ञान के लिए नहीं देते ।
केवल इतना ही याद रखें । मेरी आत्मा नित्य है, अन्य सब अनित्य है ।
यः पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं परसंगमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥" ऐसा ज्ञान दृढ बन जाये तो शरीर में कोई रोग आये या कोई वस्तु खो जाये या किसी की मृत्यु हो जाये, तो भी हम स्वभाव से चलित नहीं बन सकते ।
मेरी चेतना मेरे साथ है । मेरी नित्य आत्मा मेरे साथ है ।
इतना सतत याद रहे तो कोई भी प्रसंग हमारा क्या बिगाड सकता है? क्या महाबल-मलया का जीवन पढ़ा है ? उनके जीवन में कितने-कितने कष्ट आये ? फिर भी केवल एक श्लोक के बल से उन्हों ने किसी भी प्रसंग में हिम्मत नहीं हारी ।।
मरणांत कष्ट के समय आपको द्वादशांगी काम में नहीं आयेगी, बड़े श्रुतधरों को भी काम में नहीं आती । उस समय तो भावित बना हुआ एक पद ही काम आता है ।
परन्तु आप उल्टा मत करना । यह तो मृत्यु के समय की बात है न? तब देख लेंगे । एक पद को याद कर लेंगे, लेकिन जीते जी कुछ भी भावित नहीं किया तो अन्त में क्या याद आयेगा ?
संथारा पोरसी क्या है ? अन्तिम समय की आराधना का (१७८ wwwwwwww00000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)