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आप नवकार को भी पकड़ सकते हैं । 'ज्ञानसार' आदि ग्रन्थों के किसी एकाध श्लोक को भी पकड़ सकते हैं ।
उदाहरणार्थं
“स्वद्रव्य गुणपर्याय चर्या वर्या पराऽन्यथा । इति दत्तात्म सन्तुष्टि - र्मृष्टि ज्ञनस्थितिर्मुनेः ॥ " " स्वद्रव्य, स्वगुण एवं स्व पर्याय की चर्या ही श्रेष्ठ है ।" यही सर्व ज्ञान का सार है ।"
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ज्ञानसार
परन्तु केवल शाब्दिक ज्ञान नहीं चलता । वह हृदय से भावित होना चाहिये । गोचरी मे केवल भोजन के नाम नहीं गिनाते, उसका पालन करते हैं अर्थात् खाद्य सामग्री खाते हैं । एक वाक्य भी यदि भावित बनकर हृदय में प्रतिष्ठित बने तो वह जीवनभर के लिए प्रकाश स्तम्भ बन जाये, गुरु बन जाये, भटकते जीवन को सुमार्ग की ओर मोडने वाला बन जाये । "समयं गोयम मा पमायए ।" ऐसा वाक्य भी प्रकाश - स्तम्भ बन सकता है ।
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मैं अपना ही अनुभव कहता हूं ।
“प्रीतलडी बंधाणी रे..." यह स्तवन मैं वि. संवत् २०४२ से मांडवी से चौदह वर्ष से निरन्तर बोलता हूं । दिन में तीन से चार बार बोलता हूं । ज्यों ज्यों बोलता हूं, त्यों त्यों नये-नये भाव आते जाते हैं ।
ज्यों ज्यों वैद्य पीपर घोटता है, त्यों-त्यों उसकी शक्ति बढ़ती जाती है । उसी प्रकार से हम ज्यों ज्यों रटते जाते हैं, त्यों त्यों उस पंक्ति की, उस वाक्य की शक्ति बढ़ती जाती है । उसके बाद उस दृढतम बने ज्ञान से मोह का जाल छिन्न-भिन्न हो जाता है । ऐसा यदि नहीं हो सकता हो तो माषतुष मुनि को केवलज्ञान प्राप्त होता ही नहीं । 'मा रुष, मा तुष' केवल इन दो वाक्यों के द्वारा उन्हों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । ये दो वाक्य आते हैं न ? कि सिखाऊं ? परन्तु यह पाठ पोपट रटन नहीं चाहिये । "क्रोध न करें, क्षमा रखें" इतना पाठ याद न रहने पर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को थप्पड़ मारी । युधिष्ठिर तुरन्त बोले "अब पाठ कहे कलापूर्णसूरि २ wwwwwww. १७७
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