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और प्रभुमय बनने के लिए लिया है, यह तो ध्यान है न ?
* बुद्धि के बल पर संसारी मनुष्य लाखों रुपये कमा सकते हैं। बुद्धिविहीन मजदूर तनतोड़ परिश्रम करने पर भी कमा नहीं सकते।
बुद्धि का अन्तर है न ?
यहां भी ज्ञान अधिक, उस प्रकार कर्म की निर्जरा रूप कमाई अधिक । ज्ञान अल्प तो निर्जरा भी अल्प !
* बीज-बुद्धि के निधान, त्रिपदी मात्र से द्वादशांगी बनाने वाले गणधरों को नित्य स्वाध्याय, पुनरावृत्ति इत्यादि करने की आवश्यकता क्या ?
उन्हें भी पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता होती है तो हमें क्यों नहीं ? पुनरावृत्ति में से अनुप्रेक्षा के लिए पूर्व भूमिका तैयार होती है । अनुप्रेक्षा से अखूट आगमों के अर्थ व्यक्त होते हैं ।
अध्ययन के पर्यायवाची शब्दों में एक अद्भुत शब्द है - अखीण, जो समाप्त न हो वह अखीण, अक्षीण ।
अनुप्रेक्षा से इतने अर्थ व्यक्त होते हैं कि कदापि समाप्त न हों, कहीं भी समाये नहीं ।
ऐसी अनुप्रेक्षा आदि से परिकर्मितता आने के बाद ही केवलज्ञान तक पहुंच सकते हैं ।
ज्ञान सूक्ष्म बने तो ही ग्रन्थि-भेद संभव बनता है । कोई भी 'करण' समाधि ही है। करण से ग्रन्थ-भेद होता है। आगेआगे के करण आगे-आगे की समाधि देते जाते हैं। ज्ञान अधिकाधिक और सूक्ष्म होता जाता है ।
* इतना सारा स्वाध्याय कब करें ? उम्र बडी हो गई, उनके लिए उपाय बताते हैं - (दूसरे को यह इच्छित नहीं पकड़ना)
किसी एकाध पद से भी यदि आपका संवेग बढ़ता हो, भीतर चोट लगती हो, तो वह पद ही आपका सच्चा ज्ञान है । उस पद को अच्छी तरह पकड़ रखो । (गाथा ९३)
एक पद भी उसके लिए द्वादशांगी का सार बन जाता है ।
चिलातीपुत्र के लिए उपशम, विवेक, संवर ये तीन ही शब्द, माषतुष मुनि के लिए केवल दो ही वाक्य, आत्म-कल्याण के कारण बने थे ।
(१७६00wwwwwwwwooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)