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भाता है । एक-एक श्लोक में अनमोल खजाना है ।
' एगोऽहं नत्थि मे कोई ।' इस एक गाथा पर कभी तो शान्ति से सोचो । परन्तु आप तो 'पंजाब मेल' की तरह फटाफट बोल जाते हैं । फिर हाथ में क्या आयेगा ?
मैं अकेला हूं तो क्या दीन बनूं ? नहीं, मैं शाश्वत आत्मा हूं | ज्ञान-दर्शन से युक्त हूं । मुझे दीनता कैसी ?
मुझे कोई कहे, 'आप अत्यन्त अशक्त हो गये, थक गये ।" तो मैं स्वयं को दुबला नहीं मानूं, मुझे स्वयं थका हुआ नहीं मानूं । उसे जो दीखता है, वह बोलता है । मुझे जो दीखता है, उसमें मैं रमण करता हूं ।
जो श्लोक, जो पद आपके हृदय को झंकृत करता हो, आपके हृदय में संवेग-वैराग्य की धारा प्रवाहित करता हो, उसे भावित बनाने के लिए प्रयत्न करें, इतना ही मुझे कहना है । * सुई को यदि खोनी नहीं हो तो साथ में डोरा (धागा) चाहिये उसी प्रकार से आत्मा को नहीं खोनी हो तो परमात्मा चाहिये । इन परमात्मा को आप कदापि न भूलें । यदि परमात्मा को भूलोगे तो आत्मा भी भूल जाओगे |
'ओम्' में जैन प्रवचन
'अ' अर्थात् विष्णु । विष्णु 'ध्रौव्य' के प्रतीक हैं । 'उ' अर्थात् उमापति - शंकर । शंकर 'व्यय' के प्रतीक हैं । 'म्' अर्थात् ब्रह्मा । ब्रह्मा 'उत्पाद' के प्रतीक हैं । अ + उ + म = ओम् ।
ओंकार में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिपदी छिपी हुई हैं और त्रिपदी में सम्पूर्ण द्वादशांगी छिपी हुई है । अतः कहा जा सकता है कि ओंकार में सम्पूर्ण जैन - प्रवचन बीज रूप में छिपा हुआ है I (अकारो वासुदेवः स्यात्, उकारस्तु महेश्वरः ।
मकारः प्रजापतिः स्यात्, त्रिदेव ॐ प्रयुज्यते II)
कहे कलापूर्णसूरि २ Www
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WOOW १७९