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भक्ति में लीनता
२३-४-२०००, रविवार वै. कृष्णा-द्वितीय-४ : पालीताणा
* ४५ आगमों में से इस समय हम 'चंदाविज्झय पयन्ना' का स्वाध्याय कर रहे हैं ।
मुक्ति का मार्ग रत्नत्रयी में है। उसे प्राप्त करने के लिए देवगुरु-एवं धर्म है। इसे तत्त्वत्रयी कहते हैं ।
रत्नत्रयी प्राप्त करने के लिए तत्त्वत्रयी चाहिये । दोनों त्रयी में उपादान एवं निमित्त दोनों कारण विद्यमान हैं ।
तत्त्वत्रयी (देव-गुरु-धर्म) में निमित्त एवं रत्नत्रयी (ज्ञानादि गुण प्रत्येक में प्रछन रूप में हैं ही) में उपादान कारण विद्यमान है।
अपनी रत्नत्रयी का पुष्ट कारण तत्त्वत्रयी है । अपनी दृढ़ श्रद्धा ऐसी होनी चाहिये ।
* देव-गुरु की भक्ति के बिना जीवन में सच्चा ज्ञान आता ही नहीं है । इसी लिए भक्ति के बिना आया हुआ ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है, अज्ञान कहलाता है ।
* सर्व प्रथम हमें नवकार मिला । इस नवकार में तत्त्वत्रयी और रत्नत्रयी दोनों हैं । दोनों त्रयी का विनय भी नवकार में है ।
* अनुप्रेक्षा में अर्थ का चिन्तन करना है। अर्थात् उसमें
(१७४mmmmmmmmmmmmmmmmon कहे कलापूर्णसूरि - २]