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________________ * पांचो प्रकार का स्वाध्याय एक प्रकार का तप है । स्वाध्याय तो ऐसा तप है जिसकी तुलना कोई अन्य तप कर नहीं सका और न कर सकेगा । * स्वाध्याय का चौथा प्रकार 'अनुप्रेक्षा' है । अनुप्रेक्षा अर्थात् कवि की उत्प्रेक्षा नहीं । जो पढ़ें हैं उसकी ही प्रेक्षा करनी है । इस प्रकार की अनुप्रेक्षा सभी कर सकते हैं । उसके लिए महान प्रतिभाशाली बनना आवश्यक नहीं है । * आज आप में बुद्धि अधिक हो तो मानना कि पूर्वजन्म में ज्ञान की साधना जोरदार की है । अब उस बुद्धि का कहां उपयोग करें ? यहां तो कहते हैं कि बुद्धि अधिक हो या अल्प, परन्तु ज्ञान का प्रयत्न चालु ही रखें । ( गाथा ९०) ज्ञान ही ऐसी सम्पत्ति है, जिसे हम परलोक में भी साथ ले जा सकते हैं । हमारी उपधि, देह आदि सब यहीं रहने वाले हैं, यह तो पता है न ? * पास के कमरे में कोई बीमार हो तो भी हम नहीं जाते, परन्तु अपने भगवान कैसे हैं ? चंडकौशिक के वहां बिना बुलाये गये । भगवान को चंडकौशिक भयंकर रूप से बीमार प्रतीत हुआ । इसीलिए सहज परोपकारी स्वभाव के कारण भगवान वहां गये । भगवान चंडकौशिक के कोई सम्बन्धी नहीं थे, ऐसा भी नहीं सुना कि उनका पूर्वभव का कोई सम्बन्ध हो । फिर भी भगवान गये । अन्य कोई सम्बन्ध हो या न हो, जीवत्व का सम्बन्ध तो है न ? एक बार आप चुनाव में चुने जाकर उच्च पद पर पहुंच जाओ, परन्तु वहां जाकर ऐश-आराम ही करो; जनता का कोई. कार्य न करो तो जनता क्या आपको पुन: चुन कर भेजेगी ? पांचवे परमेष्ठी के उच्च पद पर हम सब पहुंचे हुए हैं । अब यदि यहां कार्य न करें तो क्या यह सब पुनः मिलेगा ? जिस वस्तु का हम सदुपयोग न करें, प्रकृति पुनः हमको वह वस्तु नहीं देती । प्रकृति का यह नियम अच्छी तरह समझ लेना । * हमारे भीतर बुद्धि कदाचित् अल्प हो तो भी प्रयत्न तो नहीं छोड़ना चाहिये । बुद्धि हमारे हाथ में नहीं है, परन्तु प्रयत्न wwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि- २ १७२
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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