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* विनय-निग्रह अर्थात् विनय-गुण ऐसा आत्मसात् हो चुका हो कि नींद में भी विनय जाये नहीं । ऐसा विनीत शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करके सांप को भी पकड़ने के लिए जाये, गुरु-आज्ञा से सचित्त भी वहोर लाये और गुरु यदि दिन को रात कहे तो भी वह 'तहत्ति' कहे ।
विशेषतः छेद ग्रन्थ पढ़ाने से पूर्व गुरु यह जानने के लिए ऐसी परीक्षा करते हैं कि शिष्य परिणत, अपरिणत या अतिपरिणत
* पांच प्रतिक्रमण (आवश्यक सूत्र) पूर्ण रूपेण अर्थ सहित आते हैं ? अच्छी तरह कितनों को आते होंगे ?
प्रकाश-विहीन दीपक कार्यकारी नहीं बन सकता, उस प्रकार अर्थ के बिना सूत्र कार्यकारी नहीं बन सकते । अतः उस ओर दुर्लक्ष रखें वह उचित नहीं है ।
* श्रद्धा (सम्यग्दर्शन), जानकारी (ज्ञान) अथवा उद्यम (चारित्र) में जितना कम प्रयत्न हो उतनी अपनी मोक्ष की इच्छा कम है, यह मानें । उपाय में प्रयत्न कम उस प्रकार उपेय की इच्छा कम ही माननी रही । धीरे चलने का अर्थ ही यह हैं कि मंजिल पर पहुंचने की शीघ्रता नहीं है । * अपने पू. उपा. यशोविजयजी म. का कथन है -
"जिहां लगे आतम द्रव्य-, लक्षण नवि जाण्यु; तिहां लगे गुणठाणुं भलुं, किम आवे ताण्यु...?" नरसैया कहते हैं - ___ "जिहां लगे आतमातत्त्व चिन्यो नहीं;
तिहां लगे साधना सर्व जूठी ।" इस आत्मा को कब जानेंगे? हम इसमें कब रमण करेंगे ? रत्नत्रयी आत्मा में जाने के लिए ही है ।
* कोई गृहस्थ कमाई करके लाया हुआ धन वैसे ही नहीं रख देता, खो जाये वैसे नहीं रखता । क्या हम ज्ञान रूपी धन उस प्रकार संभालते हैं ? कि यह सब भूल गये ? आज कितना कण्ठस्थ हैं ? हम करने के समय याद कर लेते हैं, बाद में एक ओर रख देते हैं ।
(१७० 60000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)