________________
* हरिभद्रसूरिजी योगदृष्टि समुच्चय में कहते हैं - हम वास्तविक रूप में जीव कब कहलाते हैं ? जब हम ज्ञान आदि गुणों को जान लें तब ।
मित्रादृष्टि में जीव आने पर ही प्रथम गुणस्थान यथार्थ गिना जाता है । इससे पूर्व का गुणस्थान केवल नाम का होता है । उस प्रकार जीव कब कहलायेंगे ? जब भीतर के गुण जान लें तब । इससे पूर्व तो नाम के जीव । बाकी जड़ के भाई ।
* यह ग्रन्थ जोर देकर कहता है कि कृपा करके आप गुरु बनने का प्रयत्न मत करना, शिष्य बनने का ही प्रयत्न करना । ऐसा करोगे तो ही विनय आयेगा । विनय आयेगा तो बाकी सब स्वतः ही आ जायेगा । विनय ही पात्रता प्रदान करता है।
* इस ग्रन्थ में 'विनय-निग्रह' शब्द का प्रयोग हुआ है। विनय-निग्रह अर्थात् विनय पर नियन्त्रण । जिस तरह घुड़सवार का घोड़े पर नियन्त्रण होता है, उस प्रकार अपना विनय पर नियन्त्रण होना चाहिये । यहीं 'विनय-निग्रह' कहलाता है। जिस प्रकार कुशल घुड़सवार के पास से घोड़ा नहीं छूटता, उस प्रकार विनय का निग्रह करने वाले के पास से विनय नहीं छूटना चाहिये ।
जिस प्रकार ४५ आगम, आगम कहलाते हैं, उस प्रकार उन पर की गई टीका-चूर्णि आदि भी आगम ही हैं । टीका-चूर्णि तो आगम के अंग हैं । अंगो को छोड़ कर आप पुरुष को कैसे मान सकते हैं ?
पू. आनन्दघनजी का कथन है - 'चूर्णि, भाष्य, सूत्र नियुक्ति, वृत्ति-परंपर अनुभव रे; समय-पुरुष ना अंग कह्या ए, जे छेदे ते दुर्भव्व रे...'
जो लोग (स्थानकवासी) टीका आदि को नहीं मानते, उनके लिए ऐसा लिखा है ।
आगे बढ़कर कहूं तो हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ भी आगम कहलाते हैं । क्योंकि वे आगम-पुरुष थे । उन्हों ने आगमों को जीवन में पचाया था, आत्मसात् किया था । उपा. यशोविजयजी म. का कथन है कि हरिभद्रसूरिजी के योग-ग्रन्थों के बिना आप आगमों के रहस्य नहीं जान सकते । (कहे कलापूर्णसूरि - २00monsooooooooooooooo १६९)