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________________ "मा सुअह जग्गिअव्वे ।' जागृत रहने के इस मानव-जीवन में सोना नहीं है । कहां जागना है ? जगे हुए ही हैं, ऐसा न मानें । नेत्र खुले हों, यह जागृति नहीं कहलाती । ज्ञानदशा में जागना है। परम जागृति में, निर्विकल्प दशा में प्रभु के दर्शन होते हैं । मोहराजा हमें नींद में सुलाता है, मत्त बनाता है । ज्ञानदशा में जाग न जायें, अतः भौतिक आकर्षण बताकर ललचाता है । * "गुरु की अपेक्षा मैं अधिक जानता हूं।" जब ऐसा विचार आता है तब "श्री नयविजय विबुध पय-सेवक वाचक जस कहे साचुंजी ।" यह पंक्ति याद करें । जो ऐसा बोल सकता है, हृदय से मान सकता है, उसे ही ज्ञान पचा है, यह समझें । घर कहता है - सीढियां (पगथिया) - यहां पांच गठिये (हिंसा, असत्य, चोरी, काम, परिग्रह) हैं, यहां न आयें । चबूतरा (ओटलो) - चेतन ! यहां से हटो, भागो, भीतर न आयें । नकूचा - चूकें नहीं, अब भी कहता हूं चूको मत । भीतर आने जैसा नहीं है। कमरा (ओरडो) - इनकार किया था, फिर भी भीतर आ गये ? हे आतमराम ! रोते रहो, अब जीवन भर रोते ही रहो । चार दीवार - यहां घर में क्या है ? यहां तो केवल चार दिन (व्हाल) प्रेम हैं । बस, फिर सब प्रेम उड़ जायेगा । 'चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात ।' कहे २0oooooooooooooooooo १६७
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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