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ऊंट वैद्य के पास नहीं, परन्तु निपुण वैद्य के पास हम उपचार कराते हैं। यहां देव-गुरु भी भव-रोग नष्ट करने वाले निपुण वैद्य हैं।
डाक्टर या वैद्य पूछता है - शरीर कैसे है ? आप स्वस्थ हों तो उत्तर देते हैं - बहुत अच्छा है ।
अब मैं आपको पूछता हूं - आपकी आत्मा को कैसे है ? कोई अन्तरंग रोग तो सताता नहीं है न ?
प्राणघातक अन्तरंग रोग का उपचार करने वाले भगवान जगत् के धन्वन्तरी वैद्य हैं । चिन्ता का कोई कारण नहीं है ।
आगमों के अध्ययन से गुरु भी उपचार जानते हैं । शरीर का उपचार कराने के लिए तुरन्त दौडने वाले हम आत्मा का उपचार कराने के लिए सर्वथा उदासीन रहें, यह कैसा है ? * "ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो इण संसार;
ज्ञान आराधनथी लहो, शिवपद सुख श्रीकार ।" ज्ञान पंचमी के चैत्यवन्दन में जब आप यह बोलते हैं तब स्वयं में आपको ज्ञान की दरिद्रता प्रतीत होती है ? ज्ञान-दरिद्रता के कारण आप स्वयं पशु के समान लगते हैं ? यदि ज्ञान में कभी (अपरिपकवता) होगी तो चारित्र में भी कभी (अपरिपकवता) आयेगी ही ।
मोहराजा की जाल में से मुक्त होने का यह अवसर यदि चूक गये तो पुनः यह अवसर कहां मिलेगा ?
ऊंट वैद्य ठीक चिकित्सा नहीं कर सकता, उसी प्रकार से अगीतार्थ, अज्ञानी आत्मा चारित्र-शुद्धि नहीं कर सकता । चारित्र महान् है, मुक्ति प्राप्त कराने वाला है । सम्यग् दर्शन महान् है मुक्ति प्रदान कराने वाला है। यह सही है परन्तु उसे लाने वाला ज्ञान है, यह कैसे भूला जा सकता है ?
हम ज्ञानमय होते हुए भी आज जड़मय बन गये हैं । इस भ्रान्ति को नष्ट करने वाला ज्ञान है, ज्ञानदाता गुरु हैं ।
"अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानांजन शलाकया ।
नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे-नमः ॥" सोया हुआ व्यक्ति अपने आप उठ नहीं सकता । उसे कोइ जगाने वाला चाहिये । गुरु जगानेवाले हैं ।
[१६६ 0000000ooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)