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________________ * मरुदेवी माता की अनित्य भावना गहराई से समझाने योग्य है । सब अनित्य है तो नित्य कौन है ? नित्यत्व भीतर होना ही चाहिये । वह नित्य आत्मतत्त्व प्राप्त करने की तीव्र लगन ही उन्हें केवलज्ञान की ओर ले गई । प्रभु को देख कर उन्हें अपने भीतर रहे नित्य प्रभु दिखाई दिये ।। * एक ओर चौदह पूर्व का ज्ञान और दूसरी ओर भावित बना हुआ केवल अष्ट प्रवचन माता का ज्ञान दोनों समान बताये गये हैं । ऐसी सब बातों का विपरीत अर्थ लगाकर पढ़ना बन्द मत कर देना । ___भावना ज्ञान भी कब आता है ? उसकी पूर्व भूमिका में चिन्ताज्ञान चाहिये । यह भी कब आता है ? इसकी पूर्व भूमिका में श्रुतज्ञान चाहिये । इसीलिए श्रुतज्ञान पर इतना महत्त्व दिया जाता * 'चंदाविज्झय पयन्ना' में विनय, शिष्य, आचार्य (गुरु) आदि का वर्णन किया । अब ज्ञान-द्वार चलता है । आत्मा का परिचय कराने वाला ज्ञान है । आप शरीर नहीं है, जड़ नहीं हैं। आप ज्ञानमय आत्मा हैं । शरीर जल जायेगा, ज्ञान नहीं जलेगा । * भगवान के द्रव्य, गुण-पर्याय के चिन्तन के बिना शुद्ध आत्म-द्रव्य का, गुण-पर्याय का चिन्तन नहीं आ सकता । जन्म से ही बकरों के समूह में रहा हुआ शेर, अन्य शेर को देखे बिना या उसके चित्र को देखे बिना अपना सिंहत्व कैसे जान सकता है ? कितनेक व्यक्ति अपना शुद्ध आत्म-द्रव्य 'करण' (दूसरे के उपदेश) से जानते हैं । कितनेक 'भवन' से (सहज ही) जानते हैं । यद्यपि 'भवन' में भी पूर्व भव में उपदेश कारण तो है ही । * आप अन्तर में मात्र आराधकभाव उत्पन्न करो । उसके बाद का उत्तरदायित्व भगवान का । आप मात्र सार्थ में जुड़ जायें, पूर्णतः समर्पित हो जाओ। फिर मुक्तिपुरी में ले जाने का उत्तरदायित्व सार्थवाहरूप भगवान का है । * जगत् में व्याधि है तो उसे नष्ट करने वाली औषधि भी है । राग-द्वेष आदि व्याधि हैं तो उन्हें नष्ट करने के उपाय धर्मानुष्ठान भी हैं । कहे कलापूर्णसूरि - २ answomanmmmmmmm १६५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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