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रहोगे तो आप फूल कर कुप्पा नहीं बन पाओगे । यदि कोई आपकी निन्दा करेगा तो अप्रसन्न भी नहीं होओगे ।
* ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ६ छेदग्रन्थ, १० पयन्ना, नंदी एवं अनुयोग - ये ४५ आगम हैं । दस पयन्ना में 'चंदाविज्झय' पयन्ना भी आगम है। छोटा सा यह ग्रन्थ क्या हम कण्ठस्थ नहीं कर सकते ? यदि कण्ठस्थ कर लें तो यह दर्पण का कार्य करेगा।
* भगवान द्वारा कथित एक श्लोक में, अरे एक नवकार में सम्पूर्ण मोक्ष-मार्ग छिपा हुआ है, यदि हम उसे आत्मसात् करें ।
"बुज्झ बुज्झ चंडकोसिआ !" इतने वाक्य से चंडकौशिक प्रतिबोधित हुआ था ।
_ 'समयं गोयम मा पमायए ।' प्रति पल इतना वाक्य भी याद रह जाये तो काम बन जाये ।
* गुणों की दृष्टि से केवलज्ञान श्रेष्ठ है । श्रुतज्ञान का भी लक्ष्य है - केवलज्ञान, परन्तु श्रुतज्ञान कारण है, केवलज्ञान कार्य है । भार कारण पर देना पड़ता है। कारण आ जायेगा तो कार्य कहां जाने वाला है ? भोजन आयेगा तो तृप्ति कहां जाने वाली हैं ? श्रुतज्ञान आयेगा तो केवलज्ञान कहां जायेगा ? श्रुतज्ञान केवलज्ञान को खींच लायेगा ।
श्रुतज्ञान के बिना कोई केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । मरुदेवी माता को भी चौथे गुणस्थानक पर सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ तब श्रुतज्ञान मिला ही था । केवलज्ञान उसके बाद ही प्राप्त हुआ था ।
* सम्यग्दृष्टि के लिए तो कुरान, वेद, महाभारत, रामायण आदि मिथ्याश्रुत भी सम्यग् बन जाते हैं । दृष्टि में 'सम्यग्' आना ही मुख्य बात है । ज्ञान के एकावन खमासमणों में मिथ्याश्रुत को भी खमासमण दिया है। उसमें रहा हुआ 'मिथ्यात्व' त्याज्य है, ज्ञान नहीं ।
* चौदह पूर्वी को ही केवलज्ञान होता है, क्या यह बात है ? माषतुष मुनिश्री केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और चौदह पूर्वी भी निगोद में जा सकते हैं । इसीलिए कहा है - कि ज्ञान चाहे अल्प हो, लेकिन भावित बना हुआ होना चाहिये ।
(१६४ 0000066666666600 कहे कलापूर्णसूरि - २)