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अनुमोदना करते हैं । 'अहमवि वंदावेमि चेइआइं ।' अनुमोदना से पुन्य का गुणाकार होता जाता है ।
हरिभद्रसूरि कृत 'श्रावक प्रज्ञप्ति' में इस बात का उल्लेख है।
यह सब जीवन में उतारने के लिए है। नई पीढी को इस बात का कोई पता नहीं है ।
* पर्व तिथि पर नये-नये जिनालयों में दर्शनार्थ जाने की टेव उनके कारण ही हमारे में पड़ी ।
* एक बार पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. ने कहा, 'विशेषावश्यक भाष्य, नमस्कार नियुक्ति में नवकार का अद्भुत वर्णन पढ कर लगा, 'ओह ! नवकार ऐसा महान् है ! समस्त सूत्र तो हमें कब भावित बनायेंगे ? एक नवकार तो भावित बनायें ।
नवकार को आत्मसात् करनेवाला भेदनय से श्रुतकेवली कहलाता है, अभेद नय से चौदह पूर्वी श्रुतकेवली कहलाता है ।
वाचना * इस समय पू. देवेन्द्रसूरिजी के गुणानुवाद किये । नवपद की ढालों में जिनकी अनुप्रेक्षा करते हैं, वैसे गुणों के वे स्वामी थे ।
* उत्तम आलम्बन मिलने से, महात्म्य सुनने को मिलने से अरिहंत, आचार्य आदि के प्रति हमारा सम्मान बढ़ता है । सम्मान बढ़ने पर उनके गुण हमारे भीतर संक्रान्त होते हैं ।
सिद्धचक्र-पूजन में विधि-कारक जिस प्रकार आचार्य आदि की पूजा करता है, परन्तु कई बार वन्दन करने के लिए नहीं आते, वैसा हमें यहां नहीं करना है ।
* अरिहंत आदि का स्वरूप सुनकर, फिर उन पदों का हमारे भीतर चिन्तन करना चाहिये । ऐसा होने पर हमारी आत्मा स्वयं नवपद बन जाती है।
ध्यान का स्वभाव पानी के समान है । जहां जाता है वहां वह वैसा आकार ले लेता है । दूध में यदि पानी डाला जाये तो पानी दूध जैसा बन जाता है। उसमें दूध की शक्ति है कि पानी की शक्ति ? दोनों की शक्ति है । दूध के स्थान पर यदि पानी को गटर में फैंको तो ? दूध में पानी के बदले पेट्रोल डालो तो?
हम सब कर्म के साथ दूध-पानी तरह मिले हुए है । इस (१४६ &00000000
कहे कलापूर्णसूरि - २)