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को चुनडी ओढ़ाकर सगाई रद्द की थी ।
___ माता की आज्ञा अभी तक मिली नहीं थी । माता के मंगल आशीर्वाद प्राप्त हुए बिना ली गई दीक्षा सफल नहीं होती । ऐसे किसी विचार से उन्होंने अनेक वर्षों तक प्रतीक्षा की ।
छत्तीस वर्ष की आयु होने पर आधोई निवासी एक बहन का उपालम्भ मिला । आधोई में सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् बहनों के पारस्परिक वार्तालाप में एक बहन बोली - "ये मावडिया क्या दीक्षा ग्रहण करेगा ?"
इतने से वाक्य से ही वे संयम अंगीकार करने के लिए उत्सुक हो गये । वि. संवत् १९८३ में पू. कनकसूरिजी म. के पास दीक्षा ग्रहण करके वे मुनिश्री दीपविजयजी के रूप में प्रसिद्ध हुए ।
* उन्हें स्तवन-सज्झाय अनेक कण्ठस्थ थे । उन्हें सुनने के लिए लोग दौडा-दौडी करते । उस जमाने में उनके व्याख्यान में पूरी विद्याशाला भर जाती थी । व्याख्यान में उनकी स्मरणशक्ति के अद्भुत चमत्कार देखने को मिलते ।
वे पलभर भी समय नष्ट नहीं करते थे । स्थंडिल-मात्रा आदि के लिए जाते-आते भी उनका स्वाध्याय चलता रहता था ।
उन्होंने चतुर्दशी का उपवास तो जीवन में कदापि नहीं छोडा । ओपरेशन आदि के समय भी उन्होंने चतुर्दशी का उपवास चालू रखा । फलतः चतुर्दशी को ही उन्हें समाधि दी गई । हमने उस दिन उपवास नहीं करने के लिए उन्हें बहुत समझाया, परन्तु उपवास नहीं छोड़ा सो नहीं छोड़ा । उन्हें तप के प्रति इतना अगाध प्रेम था ।
चाय का तो नाम नहीं । नित्य एकासणा करते । यह तो हमारे समुदाय की परम्परा थी । पू. दर्शनविजयजी भी उनके साथ उपवास-आयंबिल आदि कर लेते थे ।
अष्टमी के दिन उनके पास एकासना का पच्चक्खाण लेने में शर्म आती थी । उनका एक दोहा जो पू. जीतविजयजी महाराज के पास सीखा हुआ था ।
'नीची नजरे चालतां, त्रण गुण मोटा थाय ।
कांटो टले, दया पले, पग पण नवि खरडाय ॥" (१४४ 0oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)