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की परम्परा चलती रही होगी । उस नाम-कीर्तन पर अनेक ग्रन्थो की रचना हो चुकी है। उसके द्वारा भी वे प्रभु के मार्ग में आगे बढ़ते हैं ।
* प्रभु-नाम का स्तवन (लोगस्स) बनाकर गणधरों ने दूर स्थित भगवान को समक्ष लाये हैं । इसीलिए उसमें लिखा - 'अभिथुआ ।'
काउस्सग्ग क्यों किया जाता है ? 'पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ।' पाप कर्मों के निर्घातन के लिए काउस्सग्ग किया जाता है । हम काउस्सग्ग में लोगस्स गिनते हैं, अतः निश्चित होता है कि लोगस्स में पापों को क्षय करने की शक्ति है। इसीलिए इसका दूसरा नाम 'समाधि सूत्र' है, जो हमे निर्विकल्प दशा तक पहुंचा सकता है ।
* 'जयवीयराय' क्या है ? मानो भगवान हमारे समक्ष ही हो यह मान कर ही इस 'प्रार्थना-सूत्र' की रचना की गई है । - 'हे वीतराग ! तेरी जय हो ।' मानो भगवान सामने ही खड़े हो उस प्रकार सम्बोधन किया गया है ।
'करेमि भंते' में 'भंते' शब्द से भगवान को सम्बोधित किया गया है ।
भगवान तो हमें देख ही रहे हैं । केवल हमें उनमें उपयोग जोड़ना है।
'हे भगवन् ! दूर स्थित मैं आपको नमन करता हूं। मुझे नमन करने वाले को आप देखें...' इस प्रकार इन्द्र महाराजा भगवान को स्तुति करते हुए कहते हैं ।
* जिन गुणों की कमी प्रतीत होती हो... । उदाहरणार्थक्रोध, आवेश आता हो, अन्य कोई दोष सताते हो, उनके निवारणार्थ एवं गुणों के लिए प्रभु को प्रार्थना करो । भगवान कोई कृपण नहीं है कि वह आपको कुछ न दे ।
कहे कलापूर्णसूरि - २ooooooooooooooooooo १४१)