________________
के लिए वे सामने ही हैं। इसीलिए 'अभिथुआ' कहा है। तदुपरांत भगवान केवलज्ञान के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं ही ।।
यह मान कर आराधना करें तो ही कर्म - क्षय होगा ।
"तू मुझ हृदय-गिरि मां वसे..." प्रभु यदि अपने हृदय की गिरि-गुफा में रहे तो मोह रूपी हाथी आदि हमें सता नहीं सकें ।
भगवान के हृदय में पदार्पण के बाद भक्त कहता है - "भगवान! क्या आपने कोई जादू किया है ? क्या आपने हमारा मन चुरा लिया है । कोई चिन्ता नहीं । हम भी कम नहीं हैं । हम भी जादू करेंगे । हम भी आपको अपने अन्तर में ऐसे बसायेंगे कि आप भाग नहीं सकोगे ।
अजैन संत सूरदास खड्डे में गिर पडे। कोई उन्हें उगारने आया । सूरदास समझे कि ये भगवान हैं । अतः उन्होंने उनका हाथ जोर से पकड़ लिया, परन्तु भगवान तो भाग गये । सूरदास बोले,
'बांह छुड़ा के जात हो, निर्बल जाने मोहि ।
हृदय छुड़ा के जाव तो, मर्द बखानुं तोहि ॥'
भक्त की यह शक्ति है कि वह भगवान को हृदय में पकड सकता है। जब तक हृदय में विषय-कषाय भरे हुए हों, तब तक संक्लेश होता है । जब तक भगवान होते हैं तब तक प्रसन्नता होती है । .
* भक्त के मन में प्रभु का आगमन ही नौ निधान हैं । उसे अन्य कोई तमन्ना ही नहीं है।
* आप यह नहीं माने कि भगवान में केवल वीतरागता ही है। अनन्त ज्ञान, दर्शन, वात्सल्य, अनन्तकरुणा आदि गुण प्रकटे हुए ही हैं । भक्ति करते समय उनकी अनन्त करुणा हमारी दृष्टि के समक्ष रहनी चाहिये ।
* अन्य दर्शनवाले दार्शनिकों में केवल प्रभु-नाम के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं बचा ।
भगवान श्री आदिनाथ के साथ चार हजार व्यक्तियों ने दीक्षा अंगीकार की थी, परन्तु बाद में वे तापस बन गये और प्रभु का नाम-कीर्तन करते रहे । कच्छ-महाकच्छ के द्वारा यह नाम-कीर्तन (१४० 00000000000 6 GS 6 GB कहे कलापूर्णसूरि - २)