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आम की तरह इस रसास्वादन की सौगन्ध तो नहीं ली न ? आम की सौगन्ध अच्छी; यह सौगन्ध अच्छी नहीं ।
संसार की बाते करते समय कैसे विचार आते हैं ? ऐसे तत्त्वो पर बातें करो तो चिन्तन कैसा निर्मल बनता हैं ?
* जब तक निष्काम नहीं बनोगे तब तक निष्काम आत्मा की अनुभूति नहीं होगी । बाह्य आचारों के साथ भीतर का आत्मा का आस्वादन न हो तो आचार्य के लिए भी शिष्य आदि परिवार बोझरूप है।
'जिम-जिम बहुश्रुत बहुजन सम्मत, बहुशिष्ये परिवरियो; तिम-तिम जिन-शासन नो वयरी, जो नवि निश्चय धरियो...'
___ - पू. उपा. यशोविजयजी चिद्घन आत्मा साध्य है । वह भूल जायें तो अपनी संयमयात्रा हमें, कहां ले जायेगी ? विहार में जिस गांव जाना हो, वह गांव ही भूल जायें, रास्ता चूक जायें तो कहां पहुंचेंगे ? यहां आत्मानंद का रसास्वाद भूल गये है, ऐसा नहीं प्रतीत होता ? मेरे शब्द चोट पहुंचाने वाले तो नहीं हैं न? लेकिन क्या हो ? सच्ची बात तो कहनी ही पड़ती हैं ।
निष्काम बनने से ही निर्मल बना जाता है । आत्मानुभूति की, देव-गुरु की कामना अच्छी, लेकिन भौतिक कामना से परे होकर निष्काम बनना है ।
तीनों गारवों से निष्काम बनना है । यदि मुहपत्ति के बोल अच्छी तरह याद करें तो भी उसमें से मार्ग मिल जायेगा । सम्पूर्ण मार्ग इन बोलों में समाविष्ट है, यह कहूं तो भी चलेगा ।
निष्काम बने बिना निर्मलता नहीं आती । 'परस्पृहा महादुःखम्' यह सूत्र याद रखें ।
चले बिना मंजिल नहीं आती, उस प्रकार ज्ञान-दर्शन आदि में प्रवृत्ति किये बिना, उनमें वीर्य-शक्ति जोड़े बिना आत्मा नहीं मिलती।
* संवर एवं समाधि से युक्त, उपाधि से मुक्त, बारहों प्रकार के तपों से युक्त पूज्य आचार्य भगवन् को वन्दन करें ।
कहे कलापूर्णसूरि - २0mmmmmmmmmmmmmmmmmmm १३७)