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________________ * पूज्य कनकसूरिजी, पूज्य देवेन्द्रसूरिजी आदि तथा पूज्य प्रेमसूरिजी जैसों की हमें निश्रा प्राप्त हुई; यह हमारा अहोभाग्य है । पू. देवेन्द्रसूरिजी के बाद हमें पूज्य पं. श्री भद्रंकरसूरिजी महाराज की निश्रा मिली । कितनेक व्यक्ति तो अलग होने के लिए ही शिष्य ढूंढते हैं । समुदाय एवं गीतार्थ - निश्रा संयम के लिए अत्यन्त ही उपकारी है । वृद्ध पुरुष तो इसके लिए अत्यन्त ही उपकारी हैं । * पूज्य कनकसूरिजी महाराज देखने में सादे प्रतीत होते, परन्तु जब वे शास्त्रों के पदार्थों के विषय में कहते, तब बड़े विद्वान भी चकित हो जाते । उनका मौन, उनकी अल्प वाणी सबको अपना बना ले वैसे थे । आणंदजी पंडितजी अनेक बार उनके पास आते और घंटो तक बोलते । अच्छे-अच्छे उनकी वाणी से प्रभावित हो जाते थे, परन्तु पू. कनकसूरिजी उनसे तनिक भी प्रभावित हुए बिना केवल एक ही वाक्य में उत्तर दे देते - "हम पूज्य बापजी महाराज के अनुयायी हैं।" उन पंडितजी सहित हम सब पूज्यश्री का संक्षिप्त उत्तर सुनकर स्तब्ध हो जाते थे । * आचार्य भगवन् भव्यो को देश-काल के अनुसार देशना देते हैं । वह भी शास्त्र-सम्मत एवं सापेक्ष होती है । आचार्य भगवन् सदा अप्रमत्त होते हैं, वचन-सिद्ध होते हैं । * आचार्य भगवन् गण-पति, मुनि-पति कहलाते हैं । आचार्य भगवन् चिदानंद-रसास्वाद का सदा पान करते हैं । अतः वे पर-भाव से निष्काम रहते हैं । चिदानंद-रसास्वादन के बिना पर-भाव का रस कदापि छूटता नहीं है। 'भई मगनता तुम गुण रस की, कुण कंचन कुण दारा ?' भगवान में मग्नता का अनुभव करने वाले के लिए क्या स्वर्ण और क्या स्त्री ? ऐसा चिदानन्द-रसास्वादन का पूज्य आचार्य भगवन् अकेले उपभोग नहीं करते, वे दूसरों को भी निमंत्रित करते (१३६00mmmmmmmmmmmmmmons कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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